नसीर आरज़ू के शेर
अब न चाहेंगे किसी और को तस्लीम मगर
फ़ाएदा क्या है मिरे सर की क़सम खाने से
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आओ तजदीद-ए-वफ़ा फिर से करें हम वर्ना
बात कुछ और उलझ जाएगी सुलझाने से
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जिगर में दर्द तो है दिल में इज़्तिराब तो है
तुम्हारे ग़म में मिरी ज़िंदगी ख़राब तो है
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इश्क़ की अज़्मतें बजा लेकिन
इश्क़ ही मक़्सद-ए-हयात नहीं
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उन से मायूस-ए-इल्तिफ़ात नहीं
गो ब-ज़ाहिर तवक़्क़ुआत नहीं
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