नवीन सी. चतुर्वेदी
ग़ज़ल 15
अशआर 11
अब हवाओं के दाम खुलने हैं
ख़ुशबुओं का तो हो चुका सौदा
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नए सफ़र का हर इक मोड़ भी नया था मगर
हर एक मोड़ पे कोई सदाएँ देता था
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परसों मैं बाज़ार गया था दर्पन लेने की ख़ातिर
क्या बोलूँ दूकान पे ही मैं शर्म के मारे गड़ बैठा
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बैठे-बैठे का सफ़र सिर्फ़ है ख़्वाबों का फ़ुतूर
जिस्म दरवाज़े तक आए तो गली तक पहुँचे
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मिरा साया मिरे बस में नहीं है
मगर दुनिया पे दावा कर रहा हूँ
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