उबैदुल्लह सिद्दीक़ी के शेर
इसी फ़लक से उतरता है ये अंधेरा भी
ये रौशनी भी इसी आसमाँ से आती है
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पहले चिंगारी से इक शोला बनाता है मुझे
फिर वही तेज़ हवाओं से डराता है मुझे
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ये आँखें ये दिमाग़ ये ज़ख़्मों का घर बदन
सब महव-ए-ख़्वाब हैं दिल-ए-बे-ताब के सिवा
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ज़िंदगी इक ख़्वाब है ये ख़्वाब की ताबीर है
हल्क़ा-ए-गेसू-ए-दुनिया पाँव की ज़ंजीर है
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ये किस का चेहरा दमकता है मेरी आँखों में
ये किस की याद मुझे कहकशाँ से आती है
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शाम होती है तो मेरा ही फ़साना अक्सर
वो जो टूटा हुआ तारा है सुनाता है मुझे
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