क़ासिम याक़ूब
लेख 1
अशआर 4
ये क्या कि बैठा है दरिया किनार-ए-दरिया पर
मैं आज बहता हुआ जा रहा हूँ पानी में
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क्या हो सके हिसाब कि जब आगही कहे
अब तक तो राएगानी में सारा सफ़र किया
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ये झाँक लेती है अंदर से आरज़ू-ख़ाना
हवा का क़द मिरी दीवार से ज़ियादा है
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दर-ए-इम्कान की दस्तक मुझे भेजी गई है
मेरी क़िस्मत में तो मौजूद की दौलत नहीं है
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