रहमतुल्लाह ख़ाँ के शेर
इक सिरा उलझी हुई डोर का हाथ आया है
दूसरे तक भी पहुँच जाऊँगा सुलझाते हुए
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आँख देखे बिना नहीं रहती
होंट तो ख़ैर सी लिए हम ने
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अदावतों के लिए मेरे पास वक़्त कहाँ
मोहब्बतों के लिए ही ये ज़िंदगी कम है
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हज़ारों बार तेरा ख़त पढ़ा है
कि इन लफ़्ज़ों के पीछे क्या लिखा है
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