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राजेश रेड्डी

1952 | मुंबई, भारत

समाजिक सच्चाइयों को बेनक़ाब करने वाले लोकप्रिय शायर

समाजिक सच्चाइयों को बेनक़ाब करने वाले लोकप्रिय शायर

राजेश रेड्डी के शेर

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दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह

या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं

शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं

मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं

मिरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा

बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है

किसी दिन ज़िंदगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता

मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ ज़िंदा क्यूँ नहीं होता

यहाँ हर शख़्स हर पल हादसा होने से डरता है

खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है

जितनी बटनी थी बट चुकी ये ज़मीं

अब तो बस आसमान बाक़ी है

धोका है इक फ़रेब है मंज़िल का हर ख़याल

सच पूछिए तो सारा सफ़र वापसी का है

ग़म बिक रहे थे मेले में ख़ुशियों के नाम पर

मायूस हो के लौटे हैं हर इक दुकाँ से हम

ये जो ज़िंदगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है

कहीं इक हसीन सा ख़्वाब है कहीं जान-लेवा अज़ाब है

किस ने पाया सुकून दुनिया में

ज़िंदगानी का सामना कर के

क्या जाने किस जहाँ में मिलेगा हमें सुकून

नाराज़ हैं ज़मीं से ख़फ़ा आसमाँ से हम

मिलते नहीं हैं अपनी कहानी में हम कहीं

ग़ाएब हुए हैं जब से तिरी दास्ताँ से हम

मैं ने तो ब'अद में तोड़ा था इसे

आईना मुझ पे हँसा था पहले

कुछ इस तरह गुज़ारा है ज़िंदगी को हम ने

जैसे कि ख़ुद पे कोई एहसान कर लिया है

दोस्तों का क्या है वो तो यूँ भी मिल जाते हैं मुफ़्त

रोज़ इक सच बोल कर दुश्मन कमाने चाहिएँ

बुलंदी के लिए बस अपनी ही नज़रों से गिरना था

हमारी कम-नसीबी हम में कुछ ग़ैरत ज़ियादा थी

कौन पढ़ता है यहाँ खोल के अब दिल की किताब

अब तो चेहरे को ही अख़बार किया जाना है

नींद को ढूँड के लाने की दवाएँ थीं बहुत

काम मुश्किल तो कोई ख़्वाब हसीं ढूँढना था

मिरी इक ज़िंदगी के कितने हिस्से-दार हैं लेकिन

किसी की ज़िंदगी में मेरा हिस्सा क्यूँ नहीं होता

कुछ परिंदों को तो बस दो चार दाने चाहिएँ

कुछ को लेकिन आसमानों के ख़ज़ाने चाहिएँ

बहाना कोई तो ज़िंदगी दे

कि जीने के लिए मजबूर हो जाऊँ

दिल भी बच्चे की तरह ज़िद पे अड़ा था अपना

जो जहाँ था ही नहीं उस को वहीं ढूँढना था

सफ़र में अब के अजब तजरबा निकल आया

भटक गया तो नया रास्ता निकल आया

मयस्सर मुफ़्त में थे आसमाँ के चाँद तारे तक

ज़मीं के हर खिलौने की मगर क़ीमत ज़ियादा थी

मसअला ये नहीं कि इश्क़ हुआ है हम को

मसअला ये है कि इज़हार किया जाना है

किया ईजाद जिस ने भी ख़ुदा को

वो ख़ुद को कैसे बहलाता था पहले

साथ 'ग़ालिब' के गई फ़िक्र की गहराई भी

और लहजा भी गया 'मीर-तक़ी-मीर' के साथ

सब लोग इस से पहले कि देवता समझते

हम ने ज़रा सा ख़ुद को इंसान कर लिया है

अब तो सराब ही से बुझाने लगे हैं प्यास

लेने लगे हैं काम यक़ीं का गुमाँ से हम

मिरी ग़ज़ल में किसी बेवफ़ा का ज़िक्र था

जाने कैसे तिरा तज़्किरा निकल आया

आदमी ही के बनाए हुए ज़िंदाँ हैं ये सब

कोई पैदा नहीं होता किसी ज़ंजीर के साथ

मेरी आँखें ये कहा करती हैं अक्सर मुझ से

आप देखी हुई चीज़ों को बहुत देखते हैं

बड़ी तस्वीर लटका दी है अपनी

जहाँ छोटा सा आईना था पहले

जुस्तुजू का इक अजब सिलसिला ता-उम्र रहा

ख़ुद को खोना था कहीं और कहीं ढूँढना था

इजाज़त कम थी जीने की मगर मोहलत ज़ियादा थी

हमारे पास मरने के लिए फ़ुर्सत ज़ियादा थी

या ख़ुदा अब के ये किस रंग में आई है बहार

ज़र्द ही ज़र्द है पेड़ों पे हरा कुछ भी नहीं

हाथ उठाता है दुआओं को फ़लक भी उस दम

जब परिंदा कोई परवाज़ को पर तौलता है

वो दिल से कम ज़बाँ ही से ज़ियादा बात करता था

जभी उस के यहाँ गहराई कम वुसअत ज़ियादा थी

सोच लो कल कहीं आँसू बहाने पड़ जाएँ

ख़ून का क्या है रगों में वो यूँही खौलता है

नई लाशें बिछाने के लिए ही

गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं

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