रविश सिद्दीक़ी के शेर
हज़ार रुख़ तिरे मिलने के हैं न मिलने में
किसे फ़िराक़ कहूँ और किसे विसाल कहूँ
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उर्दू जिसे कहते हैं तहज़ीब का चश्मा है
वो शख़्स मोहज़्ज़ब है जिस को ये ज़बाँ आई
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वो शख़्स अपनी जगह है मुरक़्क़ा-ए-तहज़ीब
ये और बात है कि क़ातिल उसी का नाम भी है
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तल्ख़ी-ए-ज़िंदगी अरे तौबा
ज़हर में ज़हर का मज़ा न मिला
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दिल गवारा नहीं करता है शिकस्त-ए-उम्मीद
हर तग़ाफ़ुल पे नवाज़िश का गुमाँ होता है
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सख़्त जान-लेवा है सादगी मोहब्बत की
ज़हर की कसौटी पर ज़िंदगी को कसती है
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ज़िंदगी महव-ए-ख़ुद-आराई थी
आँख उठा कर भी न देखा हम ने
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लड़खड़ाना भी है तकमील-ए-सफ़र की तम्हीद
हम को मंज़िल का निशाँ लग़्ज़िश-ए-पैहम से मिला
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इश्क़ ख़ुद अपनी जगह मज़हर-ए-अनवार-ए-ख़ुदा
अक़्ल इस सोच में गुम किस को ख़ुदा कहते हैं
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अब इस से क्या ग़रज़ ये हरम है कि दैर है
बैठे हैं हम तो साया-ए-दीवार देख कर
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हज़ार हुस्न दिल-आरा-ए-दो-जहाँ होता
नसीब इश्क़ न होता तो राएगाँ होता
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दर्द आलूदा-ए-दरमाँ था 'रविश'
दर्द को दर्द बनाया हम ने
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कोह संगीन हक़ाएक़ था जहाँ
हुस्न का ख़्वाब तराशा हम ने
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नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं
इशारे हम तिरे ऐ शम-ए-तन्हाई समझते हैं
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वो कहाँ दर्द जो दिल में तिरे महदूद रहा
दर्द वो है जो दिल-ए-कौन-ओ-मकाँ तक पहुँचे
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जो राह अहल-ए-ख़िरद के लिए है ला-महदूद
जुनून-ए-इश्क़ में वो चंद गाम होती है
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बुतान-ए-शहर को ये ए'तिराफ़ हो कि न हो
ज़बान-ए-इश्क़ की सब गुफ़्तुगू समझते हैं
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ख़ून-ए-दिल सर्फ़ कर रहा हूँ 'रविश'
ख़ूब से नक़्श-ए-ख़ूब-तर के लिए
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