रियाज़ लतीफ़ के शेर
ज़मीन फैल गई है हमारी रूह तलक
जहाँ का शोर अब अंदर सुनाई देता है
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यहीं पर ख़त्म होनी चाहिए थी एक दुनिया
यहीं से बात का आग़ाज़ होना चाहिए था
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किसी ने हम को अता नहीं की हमारी गर्दिश है अपनी गर्दिश
ख़ुद अपनी मर्ज़ी से इस जहाँ की रगों में गिर्दाब हम हुए हैं
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ख़ुदा की ख़मोशी में शायद हो उस का वजूद
ज़माना हुआ नाम अपना पुकारे हुए
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कभी तो मंज़रों के इस तिलिस्म से उभर सकूँ
खड़ा हूँ दिल की सतह पर ख़ुद अपने इंतिज़ार में
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बस लहू की बूँद थी एहसास में
फिर उगाया दश्त ने इक सर नया
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बाद में रखे सराबों के दयारों में क़दम
पहले वो साँस की सरहद पे तो आ कर देखे
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