साइल देहलवी के शेर
हमेशा ख़ून-ए-दिल रोया हूँ मैं लेकिन सलीक़े से
न क़तरा आस्तीं पर है न धब्बा जैब ओ दामन पर
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हैं ए'तिबार से कितने गिरे हुए देखा
इसी ज़माने में क़िस्से इसी ज़माने के
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मालूम नहीं किस से कहानी मिरी सुन ली
भाता ही नहीं अब उन्हें अफ़्साना किसी का
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आह करता हूँ तो आते हैं पसीने उन को
नाला करता हूँ तो रातों को वो डर जाते हैं
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टैग : आह
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झड़ी ऐसी लगा दी है मिरे अश्कों की बारिश ने
दबा रक्खा है भादों को भुला रक्खा है सावन को
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ख़त-ए-शौक़ को पढ़ के क़ासिद से बोले
ये है कौन दीवाना ख़त लिखने वाला
मोहतसिब तस्बीह के दानों पे ये गिनता रहा
किन ने पी किन ने न पी किन किन के आगे जाम था
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शबाब कर दिया मेरा तबाह उल्फ़त ने
ख़िज़ाँ के हाथ की बोई हुई बहार हूँ मैं
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ये मस्जिद है ये मय-ख़ाना तअ'ज्जुब इस पर आता है
जनाब-ए-शैख़ का नक़्श-ए-क़दम यूँ भी है और यूँ भी
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मोहब्बत में जीना नई बात है
न मरना भी मर कर करामात है
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जनाब-ए-शैख़ मय-ख़ाने में बैठे हैं बरहना-सर
अब उन से कौन पूछे आप ने पगड़ी कहाँ रख दी
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तुम्हें परवा न हो मुझ को तो जिंस-ए-दिल की परवा है
कहाँ ढूँडूँ कहाँ फेंकी कहाँ देखूँ कहाँ रख दी
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खिल गई शम्अ तिरी सारी करामात-ए-जमाल
देख परवाने किधर खोल के पर जाते हैं
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तुम आओ मर्ग-ए-शादी है न आओ मर्ग-ए-नाकामी
नज़र में अब रह-ए-मुल्क-ए-अदम यूँ भी है और यूँ भी
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