सफ़िया शमीम के शेर
होना है दर्द-ए-इश्क़ से गर लज़्ज़त-आश्ना
दिल को ख़राब-ए-तल्ख़ी-ए-हिज्राँ तो कीजिए
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बहार-ए-नौ की फिर है आमद आमद
चमन उजड़ा कोई फिर हम-नफ़स क्या
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जिस को दिल से लगा के रक्खा था
वो ख़ज़ाना लुटा गए आँसू
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होश आया तो कहीं कुछ भी न था
हम भी किस बज़्म में जा बैठे थे
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दश्त गुलज़ार हुआ जाता है
क्या यहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे
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रोना मुझे ख़िज़ाँ का नहीं कुछ मगर 'शमीम'
इस का गिला है आई चमन में बहार क्यूँ
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