साग़र निज़ामी के शेर
तेरे नग़्मों से है रग रग में तरन्नुम पैदा
इशरत-ए-रूह है ज़ालिम तिरी आवाज़ नहीं
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यही सहबा यही साग़र यही पैमाना है
चश्म-ए-साक़ी है कि मय-ख़ाने का मय-ख़ाना है
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आँख तुम्हारी मस्त भी है और मस्ती का पैमाना भी
एक छलकते साग़र में मय भी है और मय-ख़ाना भी
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दिल की बर्बादियों का रोना क्या
ऐसे कितने ही वाक़िआ'त हुए
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सज्दे मिरी जबीं के नहीं इस क़दर हक़ीर
कुछ तो समझ रहा हूँ तिरे आस्ताँ को मैं
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लाओ इक सज्दा करूँ आलम-ए-बद-मस्ती में
लोग कहते हैं कि 'साग़र' को ख़ुदा याद नहीं
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वो मिरी ख़ाक-नशीनी के मज़े क्या जाने
जो मिरी तरह तिरी राह में बर्बाद नहीं
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ढूँढने को तुझे ओ मेरे न मिलने वाले
वो चला है जिसे अपना भी पता याद नहीं
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काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है
हुस्न हिफ़ाज़त करता है और जवानी सोती है
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ख़िरामाँ ख़िरामाँ मोअत्तर मोअत्तर
नसीम आ रही है कि वो आ रहे हैं
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गुल अपने ग़ुंचे अपने गुल्सिताँ अपना बहार अपनी
गवारा क्यूँ चमन में रह के ज़ुल्म-ए-बाग़बाँ कर लें
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तख़्लीक़ अँधेरों से किए हम ने उजाले
हर शब को इक ऐवान-ए-सहर हम ने बनाया
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सैलाब-ए-तबस्सुम से दरमान-ए-जराहत कर
टुकड़े दिल-ए-बिस्मिल के आलूदा-ए-ख़ूँ कब तक
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हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे
तुम ने बना दिया है मोहब्बत में क्या मुझे
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नज़र करम की फ़रावानियों पे पड़ती है
फिर अपने दामन-ए-ख़ाकी को देखता हूँ मैं
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हुस्न ने दस्त-ए-करम खींच लिया है क्या ख़ूब
अब मुझे भी हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार नहीं
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वो सवाल-ए-लुत्फ़ पर पत्थर न बरसाएँ तो क्यूँ
उन को परवा-ए-शिकस्त-ए-कासा-ए-साइल नहीं
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