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सलाम संदेलवी

1919 - 2000 | गोरखपुर, भारत

सलाम संदेलवी के शेर

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ख़ुशी के फूल खिले थे तुम्हारे साथ कभी

फिर इस के ब'अद आया बहार का मौसम

शबनम ने रो के जी ज़रा हल्का तो कर लिया

ग़म उस का पूछिए जो आँसू बहा सके

सौ बार आई होंटों पे झूटी हँसी मगर

इक बार भी दिल से कभी मुस्कुरा सके

कटेगी कैसे गुल-ए-नौ की ज़िंदगी या-रब

कि इस ग़रीब का ख़ानों में घर अभी से है

बहुत उम्मीद थी मंज़िल पे जा कर चैन पाएँगे

मगर मंज़िल पे जब पहुँचे तो नज़्म-ए-कारवाँ बदला

ये तो मालूम है उन तक सदा पहुँचेगी

जाने क्या सोच के आवाज़ दिए जाता हूँ

हमेशा दूर के जल्वे फ़रेब देते हैं

है वर्ना चाँद बयाबाँ किसी को क्या मालूम

आए जो चंद तिनके क़फ़स में सबा के साथ

मैं ने उन्हीं को अपना नशेमन समझ लिया

हुई सुब्ह जाम खनक उठे हुई शाम नग़्मे बिखर गए

वो हसीन दिन भी थे किस क़दर जो तुम्हारे साथ गुज़र गए

क्या इसी को बहार कहते हैं

लाला-ओ-गुल से ख़ूँ टपकता है

बिजली गिरेगी सेहन-ए-चमन में कहाँ कहाँ

किस शाख़-ए-गुलिस्ताँ पे मिरा आशियाँ नहीं

दिल की धड़कन भी है उन को नागवार

उन से कुछ कहने की जुरअत क्या करें

रह-ए-हयात चमक उठ्ठे कहकशाँ की तरह

अगर चराग़-ए-मोहब्बत कोई जला के चले

गुलों के रूप में बिखरे हैं हर तरफ़ काँटे

चले जो कोई तो दामन ज़रा बचा के चले

यूँ बाग़बाँ ने मोहर लगा दी ज़बान पर

रूदाद-ए-ग़म नसीब के मारे कह सके

मुझ को तो ख़ून-ए-दिल ही पीना है

दस्त-ए-साक़ी में गर है जाम तो क्या

गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें

कभी खुल के बात कह दी कभी कर दिया इशारा

चंद तिनकों के सिवा क्या था नशेमन में मिरे

बर्क़-ए-नादाँ को समझ आई बहुत देर के ब'अद

है तिश्ना-लबी लेकिन हम क्यूँ उसे ज़हमत दें

अपना ही लहू पी लें साक़ी को जगाएँ क्या

तीरा-ओ-तार फ़ज़ाओं में जिया हूँ अब तक

निकहत-ओ-नूर के अय्याम की हसरत ही रही

मता-ए-ग़म मिरे अश्कों ही तक नहीं महदूद

इन्हीं में टूटे सितारों को भी शुमार करो

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