संदीप गुप्ते के शेर
दुल्हन की मेहंदी जैसी है उर्दू ज़बाँ की शक्ल
ख़ुशबू बिखेरता है इबारत का हर्फ़ हर्फ़
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टैग : उर्दू
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मैं तुम्हारे शहर की तहज़ीब से वाक़िफ़ न था
पत्थरों से की नहीं थी गुफ़्तुगू पहले कभी
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ग़ज़ल में जब तलक एहसास की शिद्दत न हो शामिल
फ़क़त अल्फ़ाज़ की कारीगरी महसूस होती है
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कोई भी शख़्स दुनिया में तुम्हें छोटा नज़र न आए
तुम अपने सोचने का दायरा इतना बड़ा कर लो
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हम एहतियात की ऐसी मिसाल देते हैं
तुम्हारा ज़िक्र भी आया तो टाल देते हैं
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हमें क़ुबूल नहीं छोटा मुँह बड़ी बातें
मिसाल बनते हैं और फिर मिसाल देते हैं
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कोई हयात के मअ'नी बता के समझाए
तवील क्या है भला मुख़्तसर का क्या मतलब
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उस से मेरा कोई रिश्ता निकला
मेरे जैसा वो भी तन्हा निकला
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तू कहाँ रहती है पूछा था किसी ने एक दिन
मैं ग़मों के साथ रहती हूँ ख़ुशी कहने लगी
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मोहब्बत तो किसी से कर न पाए
किसी से तुम शिकायत क्या करोगे
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फिर एक बार गुनाहों से हम ने की तौबा
फिर एक बार किया हम ने अपना काम शुरूअ'
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आँधियाँ आईं उठा कर ले गईं सब बस्तियाँ
मैं ने इक दिल में बनाया था मकाँ अच्छा हुआ
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