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सदार आसिफ़

सदार आसिफ़ के शेर

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ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक

अगर छत को बचा भी लूँ तो फिर दीवार जाती है

मैं ख़ुद को देखूँ अगर दूसरे की आँखों से

मिलेंगी ख़ामियाँ अपने ही शाह-कारों में

हो लेने दो बारिश हम भी रो लेंगे

दिल में हैं कुछ ज़ख़्म पुराने धो लेंगे

ख़त हो कोई किताब हो या दिल का ज़ख़्म हो

जो भी है मेरे पास निशानी उसी की है

ख़ता उस की मुआफ़ी से बड़ी है

मैं क्या करता सज़ा देनी पड़ी है

ये बात सच है कि वो ज़िंदगी नहीं मेरी

मगर वो मेरे लिए ज़िंदगी से कम भी नहीं

कोई शिकवा नहीं हम को किसी से

ख़ुद अपनी ज़ात हम को छल रही है

मैं तुझ से झुक के मिला हूँ मगर ये ध्यान रहे

बड़ा नहीं हूँ मगर तुझ से क़द में कम भी नहीं

सुना है धूप को घर लौटने की जल्दी है

वो आज वक़्त से पहले ही शाम कर देगी

आता रहा हूँ याद मैं उस को तमाम उम्र

इस ज़ाविए से इश्क़ में नाकाम कब हुआ

आसमाँ तू ने छुपा रक्खा है सूरज को कहाँ

क्यूँ कलाई में तिरी बंद घड़ी है अब भी

ग़ज़ल कहने में यूँ तो कोई दुश्वारी नहीं होती

मगर इक मसअला ये है कि मेयारी नहीं होती

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