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सरफ़राज़ ज़ाहिद

ग़ज़ल 19

अशआर 29

गले लग कर हम उस के ख़ूब रोए

ख़ुशी इक दिन मिली थी राह चलते

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ये जो तालाब है दरिया था कभी

मैं यहाँ बैठ के रोता था कभी

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लम्हा इतनी गुंजाइश रखता है ख़ुद में

आप उस में आने से पहले जा सकते हैं

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सब को क़ुदरत थी ख़ुश-कलामी पर

ख़ामुशी में ज़बाँ-दराज़ था मैं

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साल गुज़र जाता है सारा

और कैलन्डर रह जाता है

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