सत्तार सय्यद के शेर
समुंदरों को सिखाता है कौन तर्ज़-ए-ख़िराम
ज़मीं की तह में ख़ज़ाने कहाँ से आते हैं
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शायद अब ख़त्म हुआ चाहता है अहद-ए-सुकूत
हर्फ़-ए-एजाज़ की तासीर से लब जागते हैं
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लहू में फूल खिलाने कहाँ से आते हैं
नए ख़याल न जाने कहाँ से आते हैं
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सहर को साथ उड़ा ले गई सबा जैसे
ये किस ने कर दिए रस्ते धुआँ धुआँ मेरे
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यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया
हर रौशनी को शहर-बदर कर दिया गया
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कब बन-बास कटे इस शहर के लोगों का
क़ुफ़्ल खुलें कब जाने बंद मकानों के
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