शबनम रूमानी के शेर
ज़िंदगी ख़्वाब देखती है मगर
ज़िंदगी ज़िंदगी है ख़्वाब नहीं
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मुझे ये ज़ोम कि मैं हुस्न का मुसव्विर हूँ
उन्हें ये नाज़ कि तस्वीर तो हमारी है
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अपनी मजबूरी को हम दीवार-ओ-दर कहने लगे
क़ैद का सामाँ किया और उस को घर कहने लगे
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तेरी ताबिश से रौशन हैं गुल भी और वीराने भी
क्या तू भी इस हँसती-गाती दुनिया का मज़दूर है चाँद?
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टैग : मज़दूर
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