शफ़ीक़ुर्रहमान के हास्य-व्यंग्य
मकान की तलाश में
मकान की तलाश, एक अच्छे और दिल-पसन्द मकान की तलाश, दुनिया के मुश्किल-तरीन उमूर में से है। तलाश करने वाले का क्या-क्या जी नहीं चाहता। मकान हसीन हो, जाज़िब-ए-नज़र हो, आस-पास का माहौल रूह-परवर और ख़ुश-गवार हो, सिनेमा बिल्कुल नज़दीक हो, बाज़ार भी दूर न हो। ग़रज़
क्लब
यह उन दिनों का ज़िक्र है जब मैं हर शाम क्लब जाया करता था। शाम को बिलियर्ड रुम का इफ़्तिताह हो रहा है। चंद शौक़ीन अंग्रेज़ मेंबरों ने ख़ासतौर पर चंदा इकट्ठा किया... एक निहायत क़ीमती बिलियर्ड की मेज़ मँगाई गई। क्लब के सबसे मुअज़्ज़िज़ और पुराने मेंबर रस्म-ए-इफ़्तिताह
फ़िलॉसफ़र
आख़िर इस गर्म सी शाम को मैंने घर में कह दिया कि मुझसे ऐसी तपिश में नहीं पढ़ा जाता। अभी कुछ इतनी ज़्यादा गर्मियां भी नहीं शुरू हुई थीं। बात दरअसल ये थी कि इम्तिहान नज़दीक था और तैयारी अच्छी तरह नहीं हुई थी। ये एक क़िस्म का बहाना था। घर भर में सिर्फ़ मुझे
किलीद-ए-कामयाबी
हम लोग ख़ुश-क़िसमत हैं क्योंकि एक हैरत अंगेज़ दौर से गुज़र रहे हैं। आज तक इंसान को तरक़्क़ी करने के इतने मौके़ कभी मयस्सर नहीं हुए, पुराने ज़माने में हर एक को हर हुनर ख़ुद सीखना पड़ता था, लेकिन आज कल हर शख़्स दूसरों की मदद पर ख़्वाह मख़्वाह तुला हुआ है
दो तारे
मैंने दोनों बाज़ू ऊपर उठाए, पंजों पर उछला और सर के बल छलांग लगा दी। ख़ुनुक हवा के झोंकों में से गुज़रता हुआ धम से ठंडे पानी में कूदा। मेरी उंगलियां नदी की तह से जा लगीं। फिर उछला और पानी की सतह पर आगया। उधर उधर देखा। गुलदस्ते का कोई पता न था। पानी का
समाज
बचपन में भूतों प्रेतों की फ़र्ज़ी कहानियां सुनने के बाद जब सचमुच की कहानियां पढ़ीं तो उनमें उमूमन एक मुश्किल सा लफ़्ज़ आया करता। सब कुछ समझ में आजाता, लेकिन वो लफ़्ज़ समझ में न आता। वो दिन और आज का दिन, उस लफ़्ज़ का पता ही न चल सका। वो लफ़्ज़ है, “समाज।”