शाहिद माहुली
ग़ज़ल 18
नज़्म 11
अशआर 3
रंग बे-रंग हुआ डूब गईं आवाज़ें
रेत ही रेत है अब लाश उठाई जाए
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फैला हुआ है जिस्म में तन्हाइयों का ज़हर
रग रग में जैसे सारी उदासी उतर गई
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ख़ूँ का सैलाब था जो सर से अभी गुज़रा है
बाम-ओ-दर अब भी सिसकते हैं मगर घर चुप हैं
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