शेख़ ग़ुलाम अली रासिख़ के शेर
दूर मैं उस की मस्त आँखों के
मोहतसिब भी शराब-ख़्वार हुआ
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किस से तुम हम-कनार थे साहिब
रात हम बे-क़रार थे साहिब
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शैख़ इस बुत-शिकनी पर न हो इतना मग़रूर
तू ने तोड़ा नहीं अपना बुत-ए-पिंदार हनूज़
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