शाकिर कलकत्तवी के शेर
ये माजरा-ए-मोहब्बत समझ में आ न सका
वो हाथ आए तो मैं हाथ उन्हें लगा न सका
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रोने के बदले अपनी तबाही पे हँस दिया
'शाकिर' ने इस तरह गिला-ए-आसमाँ किया
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क़सम ही नहीं है फ़क़त इस का शेवा
तग़ाफ़ुल भी है एक अंदाज़ उस का
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ज़रा चश्म-ए-करम से देख लो तुम
सहारा ढूँढता हूँ ज़िंदगी का
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