सिद्दीक़ मुजीबी
ग़ज़ल 32
अशआर 8
उठे हैं हाथ तो अपने करम की लाज बचा
वगरना मेरी दुआ क्या मिरी तलब क्या है
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ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन
ये भी हिम्मत नहीं अब झाँक के अंदर देखूँ
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मैं ने हँसने की अज़िय्यत झेल ली रोया नहीं
ये सलीक़ा भी कोई आसान जीने का न था
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एक बेचैन समुंदर है मिरे जिस्म में क़ैद
टूट जाए जो ये दीवार तो मंज़र देखूँ
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हमारे नाम लिखी जा चुकी थी रुस्वाई
हमें तो होना था यूँ भी ख़राब चारों तरफ़
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