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सिरज आलम ज़ख़मी

1984 | सउदी अरब

सिरज आलम ज़ख़मी के शेर

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कोई शिकवा कोई गिला दे दे

मुझ को जीने का हौसला दे दे

बेवफ़ाई का मुझे इल्ज़ाम देता था वो शख़्स

मैं ने भी इतना किया बस उस को सच्चा कर दिया

ख़ुद को बचाऊँ जिस्म सँभालूँ कि रूह को

बिखरा हुआ है दर्द यहाँ से वहाँ तलक

इतना दूर जाओ कि जीना मुहाल हो

यूँ भी पास आओ कि दम ही निकल पड़े

दिल में तूफ़ान नहीं आँख में सैलाब नहीं

ऐसे जीने से तो बेहतर था कि मर ही जाते

क्या हमसरी की हम से तमन्ना करे कोई

हम ख़ुद भी अपने क़द के बराबर हो सके

वो इतनी शिद्दतों से सोचता है

कि जैसे मैं भी कोई मसअला हूँ

तोड़े बग़ैर संग तराशे जाएँगे

वो दिल ही क्या जो टूट के पत्थर हो सके

बिखरते टूटते लम्हों में ऐसा लगता है

मिरा गुमान है तू और तिरा क़यास हूँ मैं

दिल में रह रह के शोर उठता है

कोई रहता है इस मकान में क्या

सदा-ए-दिल को कहीं बारयाब होना था

मिरे सवाल का कुछ तो जवाब होना था

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