सिराज औरंगाबादी के शेर
ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही
न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही
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वो अजब घड़ी थी मैं जिस घड़ी लिया दर्स नुस्ख़ा-ए-इश्क़ का
कि किताब अक़्ल की ताक़ पर जूँ धरी थी त्यूँ ही धरी रही
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डूब जाता है मिरा जी जो कहूँ क़िस्सा-ए-दर्द
नींद आती है मुझी कूँ मिरे अफ़्साने में
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देखा है जिस ने यार के रुख़्सार की तरफ़
हरगिज़ न जावे सैर कूँ गुलज़ार की तरफ़
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इश्क़ और अक़्ल में हुई है शर्त
जीत और हार का तमाशा है
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फ़िदा कर जान अगर जानी यही है
अरे दिल वक़्त-ए-बे-जानी यही है
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दो-रंगी ख़ूब नहीं यक-रंग हो जा
सरापा मोम हो या संग हो जा
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मत करो शम्अ कूँ बदनाम जलाती वो नहीं
आप सीं शौक़ पतंगों को है जल जाने का
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
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टैग : बेख़ुदी
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कहते हैं तिरी ज़ुल्फ़ कूँ देख अहल-ए-शरीअत
क़ुर्बान है इस कुफ़्र पर ईमान हमारा
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बोलता हूँ जो वो बुलाता है
तन के पिंजरे में उस का तोता हूँ
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तुम्हारी ज़ुल्फ़ का हर तार मोहन
हुआ मेरे गले का हार मोहन
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इश्क़ दोनों तरफ़ सूँ होता है
क्यूँ बजे एक हात सूँ ताली
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इश्क़ का नाम गरचे है मशहूर
मैं तअ'ज्जुब में हूँ कि क्या शय है
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वक़्त है अब नमाज़-ए-मग़रिब का
चाँद रुख़ लब शफ़क़ है गेसू शाम
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हिज्र की रातों में लाज़िम है बयान-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार
नींद तो जाती रही है क़िस्सा-ख़्वानी कीजिए
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नियाज़-ए-बे-ख़ुदी बेहतर नमाज़-ए-ख़ुद-नुमाई सीं
न कर हम पुख़्ता-मग़्ज़ों सीं ख़याल-ए-ख़ाम ऐ वाइ'ज़
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कभी तुम मोम हो जाते हो जब मैं गर्म होता हूँ
कभी मैं सर्द होता हूँ तो तुम भड़काऊ करते हो
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नहीं बुझती है प्यास आँसू सीं लेकिन
करें क्या अब तो याँ पानी यही है
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टैग : आँसू
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क्या पूछते हो तुम कि तिरा दिल किधर गया
दिल का मकाँ कहाँ यही दिल-दार की तरफ़
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न मिले जब तलक विसाल उस का
तब तलक फ़ौत है मिरा मतलब
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मकतब-ए-इश्क़ का मोअल्लिम हूँ
क्यूँ न होए दर्स-ए-यार की तकरार
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जीना तड़प तड़प कर मरना सिसक सिसक कर
फ़रियाद एक जी है क्या क्या ख़राबियों में
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तिरी अबरू है मेहराब-ए-मोहब्बत
नमाज़-ए-इश्क़ मेरे पर हुई फ़र्ज़
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आँख उठाते ही मिरे हाथ सीं मुझ कूँ ले गए
ख़ूब उस्ताद हो तुम जान के ले जाने में
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वस्ल के दिन शब-ए-हिज्राँ की हक़ीक़त मत पूछ
भूल जानी है मुझे सुब्ह कूँ फिर शाम की बात
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मरहम तिरे विसाल का लाज़िम है ऐ सनम
दिल में लगी है हिज्र की बर्छी की हूल आज
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कुफ़्र-ओ-ईमाँ दो नदी हैं इश्क़ कीं
आख़िरश दोनो का संगम होवेगा
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कभी ला ला मुझे देते हो अपने हात सीं प्याला
कभी तुम शीशा-ए-दिल पर मिरे पथराव करते हो
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ज़िंदगानी दर्द-ए-सर है यार बिन
कुइ हमारे सर कूँ आ कर झाड़ दे
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नींद सीं खुल गईं मिरी आँखें सो देखा यार कूँ
या अँधारा इस क़दर था या उजाला हो गया
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मुश्ताक़ हूँ तुझ लब की फ़साहत का व-लेकिन
'राँझा' के नसीबों में कहाँ 'हीर' की आवाज़
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सुना है जब सीं तेरे हुस्न का शोर
लिया ज़ाहिद ने मस्जिद का किनारा
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पकड़ा हूँ किनारा-ए-जुदाई
जारी मिरे अश्क की नदी है
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डोरे नहीं हैं सुर्ख़ तिरी चश्म-ए-मस्त में
शायद चढ़ा है ख़ून किसी बे-गुनाह का
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रोज़ा-दारान-ए-जुदाई कूँ ख़म-ए-अबरू-ए-यार
माह-ए-ईद-ए-रमज़ां था मुझे मालूम न था
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मुफ़्ती-ए-नाज़ ने दिया फ़तवा
ख़ून-ए-आशिक़ हलाल करता है
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जिस कूँ पिव के हिज्र का बैराग है
आह का मज्लिस में उस की राग है
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खुल गए उस की ज़ुल्फ़ के देखे
पेच-ए-दस्तार-ए-ज़ाहिद-ए-मक्कार
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हमारी बात मोहब्बत सीं तुम जो गोश करो
तो अपनी प्रेम कहानी तुम्हें सुनाऊँगा
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'सिराज' इन ख़ूब-रूयों का अजब मैं क़ाएदा देखा
बुलाते हैं दिखाते हैं लुभाते हैं छुपाते हैं
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कान में है तेरे मोती आब-दार
या किसी आशिक़ का आँसू बोलना
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नज़र-ए-तग़ाफ़ुल-ए-यार का गिला किस ज़बाँ सीं करूँ बयाँ
कि शराब-ए-सद-क़दह आरज़ू ख़ुम-ए-दिल में थी सो भरी रही
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अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
किसी मजनूँ की सोहबत बैठ दीवाने हुए होते
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तहक़ीक़ की नज़र सीं आख़िर कूँ हम ने देखा
अक्सर हैं माल वाले कम हैं कमाल वाले
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मुझ रंग ज़र्द ऊपर ग़ुस्से सीं लाल मत हो
ऐ सब्ज़ शाल वाले ऊदे रुमाल वाले
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बुत-परस्तों कूँ है ईमान-ए-हक़ीक़ी वस्ल-ए-बुत
बर्ग-ए-गुल है बुलबुलों कूँ जल्द-ए-क़ुरआन-ए-मजीद
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किया है जब सीं अमल बे-ख़ुदी के हाकिम ने
ख़िरद-नगर की रईयत हुई है रू ब-गुरेज़
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दिल ले गया है मुझ कूँ दे उम्मीद-ए-दिल-दही
ज़ालिम कभी तो लाएगा मेरा लिया हुआ
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हाकिम-ए-इश्क़ ने जब अक़्ल की तक़्सीर सुनी
हो ग़ज़ब हुक्म दिया देस निकाला करने
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