सिराज औरंगाबादी के शेर
सनम किस बंद सीं पहुँचूँ तिरे पास
हज़ारों बंद हैं तेरी क़बा के
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रोज़ा-दारान-ए-जुदाई कूँ ख़म-ए-अबरू-ए-यार
माह-ए-ईद-ए-रमज़ां था मुझे मालूम न था
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ऐ नसीम-ए-सहरी बू-ए-मोहब्बत ले आ
तुर्रा-ए-यार सती इत्र की महकार कूँ खोल
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किया ख़ाक आतिश-ए-इश्क़ ने दिल-ए-बे-नवा-ए-'सिराज' कूँ
न ख़तर रहा न हज़र रहा मगर एक बे-ख़तरी रही
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जब सीं लाया इश्क़ ने फ़ौज-ए-जुनूँ
अक़्ल के लश्कर में भागा भाग है
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वो ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन लगती नहीं हात
मुझे सारी परेशानी यही है
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क्यूँकि होवे ज़ाहिद ख़ुद-बीं मुरीद-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार
उस ने सारी उम्र में ज़ुन्नार कूँ देखा न था
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जाँ-सिपारी दाग़ कत्था चूना है चश्म-ए-इन्तिज़ार
वास्ते मेहमान ग़म के दिल है बीड़ा पान का
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नियाज़-ए-बे-ख़ुदी बेहतर नमाज़-ए-ख़ुद-नुमाई सीं
न कर हम पुख़्ता-मग़्ज़ों सीं ख़याल-ए-ख़ाम ऐ वाइ'ज़
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मैं हूँ तो दिवाना प किसी ज़ुल्फ़ का नहीं हूँ
वल्लाह कि रखता नहीं यक तार किसी का
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ज़िंदगानी दर्द-ए-सर है यार बिन
कुइ हमारे सर कूँ आ कर झाड़ दे
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मुश्ताक़ हूँ तुझ लब की फ़साहत का व-लेकिन
'राँझा' के नसीबों में कहाँ 'हीर' की आवाज़
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मरहम तिरे विसाल का लाज़िम है ऐ सनम
दिल में लगी है हिज्र की बर्छी की हूल आज
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न बूझो आसमाँ पर तुम सितारे
हमारी आह की चिंगारियाँ हैं
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बुत-परस्तों कूँ है ईमान-ए-हक़ीक़ी वस्ल-ए-बुत
बर्ग-ए-गुल है बुलबुलों कूँ जल्द-ए-क़ुरआन-ए-मजीद
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इस अदब-गाह कूँ तूँ मस्जिद-ए-जामे मत बूझ
शैख़ बे-बाक न जा गोशा-ए-मय-ख़ाने में
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तुझ ज़ुल्फ़ में दिल ने गुम किया राह
इस प्रेम गली कूँ इंतिहा नईं
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तिरी अबरू है मेहराब-ए-मोहब्बत
नमाज़-ए-इश्क़ मेरे पर हुई फ़र्ज़
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ज़ि-बस काफ़िर-अदायों ने चलाए संग-ए-बे-रहमी
अगर सब जम'अ करता मैं तो बुत-ख़ाने हुए होते
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वो आशिक़ी के खेत में साबित क़दम हुआ
जो कोई ज़ख़्म-ए-इश्क़ लिया दिल की ढाल पर
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आ शिताबी सीं वगर्ना मज्लिस-ए-उश्शाक़ में
ज़ुल्म है ग़म है क़यामत है ख़राबी ऐ सनम
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इश्क़ का नाम गरचे है मशहूर
मैं तअ'ज्जुब में हूँ कि क्या शय है
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कचेहरी में चमन की हर तरफ़ फ़रियाद बुलबुल है
किए हो इन दिनो में गुल कूँ शायद पेश-कार अपनाँ
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'सिराज' इन ख़ूब-रूयों का अजब मैं क़ाएदा देखा
बुलाते हैं दिखाते हैं लुभाते हैं छुपाते हैं
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चली सम्त-ए-ग़ैब सीं क्या हवा कि चमन ज़ुहूर का जल गया
मगर एक शाख़-ए-निहाल-ए-ग़म जिसे दिल कहो सो हरी रही
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मुझ रंग ज़र्द ऊपर ग़ुस्से सीं लाल मत हो
ऐ सब्ज़ शाल वाले ऊदे रुमाल वाले
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मस्जिद वहशत में पढ़ता है तरावीह-ए-जुनूँ
मुसहफ़ हुस्न-ए-परी-रुख़्सार जिस कूँ याद है
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मैं कहा क्या अरक़ है तुझ रुख़ पर
मुस्कुरा कर कहा कि फ़ित्ना है
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किया है जब सीं अमल बे-ख़ुदी के हाकिम ने
ख़िरद-नगर की रईयत हुई है रू ब-गुरेज़
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टैग : बेख़ुदी
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नहीं बख़्शी है कैफ़िय्यत नसीहत ख़ुश्क ज़ाहिद की
जला देव आतिश-ए-सहबा सीं इस कड़बी के पोले कूँ
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इश्क़ और अक़्ल में हुई है शर्त
जीत और हार का तमाशा है
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आँख उठाते ही मिरे हाथ सीं मुझ कूँ ले गए
ख़ूब उस्ताद हो तुम जान के ले जाने में
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क्या पूछते हो तुम कि तिरा दिल किधर गया
दिल का मकाँ कहाँ यही दिल-दार की तरफ़
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सुना है जब सीं तेरे हुस्न का शोर
लिया ज़ाहिद ने मस्जिद का किनारा
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नक़्द-ए-दिल-ए-ख़ालिस कूँ मिरी क़ल्ब तूँ मत जान
है तुझ कूँ अगर शुबह तो कस देख तपा देख
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दाम-ओ-क़फ़स न चाहिए दिल के शिकार कूँ
करती हैं बंद आँख के डोरों की डोरियाँ
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तुम्हारी ज़ुल्फ़ का हर तार मोहन
हुआ मेरे गले का हार मोहन
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बोलता हूँ जो वो बुलाता है
तन के पिंजरे में उस का तोता हूँ
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हमारी बात मोहब्बत सीं तुम जो गोश करो
तो अपनी प्रेम कहानी तुम्हें सुनाऊँगा
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क्या होएगा सुनोगे अगर कान धर के तुम
गुज़री बिरह की रात जो मुझ पर कहानियाँ
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कभी जो आह के मिसरे कूँ याद करता हूँ
ख़याल-ए-क़द कूँ तिरे मुस्ताज़ाद करता हूँ
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कभी ला ला मुझे देते हो अपने हात सीं प्याला
कभी तुम शीशा-ए-दिल पर मिरे पथराव करते हो
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दिल ले गया है मुझ कूँ दे उम्मीद-ए-दिल-दही
ज़ालिम कभी तो लाएगा मेरा लिया हुआ
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नींद सीं खुल गईं मिरी आँखें सो देखा यार कूँ
या अँधारा इस क़दर था या उजाला हो गया
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दो-रंगी ख़ूब नहीं यक-रंग हो जा
सरापा मोम हो या संग हो जा
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मत करो शम्अ कूँ बदनाम जलाती वो नहीं
आप सीं शौक़ पतंगों को है जल जाने का
डूब जाता है मिरा जी जो कहूँ क़िस्सा-ए-दर्द
नींद आती है मुझी कूँ मिरे अफ़्साने में
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तहक़ीक़ की नज़र सीं आख़िर कूँ हम ने देखा
अक्सर हैं माल वाले कम हैं कमाल वाले
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वक़्त है अब नमाज़-ए-मग़रिब का
चाँद रुख़ लब शफ़क़ है गेसू शाम
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ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही
न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही
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