सिराज लखनवी के शेर
आँखें खुलीं तो जाग उठीं हसरतें तमाम
उस को भी खो दिया जिसे पाया था ख़्वाब में
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टैग : ख़्वाब
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कहाँ हैं आज वो शम-ए-वतन के परवाने
बने हैं आज हक़ीक़त उन्हीं के अफ़्साने
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टैग : वतन-परस्ती
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हाँ तुम को भूल जाने की कोशिश करेंगे हम
तुम से भी हो सके तो न आना ख़याल में
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आप के पाँव के नीचे दिल है
इक ज़रा आप को ज़हमत होगी
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ये आधी रात ये काफ़िर अंधेरा
न सोता हूँ न जागा जा रहा है
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इस सोच में बैठे हैं झुकाए हुए सर हम
उट्ठे तिरी महफ़िल से तो जाएँगे किधर हम
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इश्क़ का बंदा भी हूँ काफ़िर भी हूँ मोमिन भी हूँ
आप का दिल जो गवाही दे वही कह लीजिए
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आग और धुआँ और हवस और है इश्क़ और
हर हौसला-ए-दिल को मोहब्बत नहीं कहते
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क़फ़स से दूर सही मौसम-ए-बहार तो है
असीरो आओ ज़रा ज़िक्र-ए-आशियाँ हो जाए
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टैग : ज़िंदाँ
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इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी
बे-रहम अँधेरा है शमएँ हैं न परवाने
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नमाज़-ए-इश्क़ पढ़ी तो मगर ये होश किसे
कहाँ कहाँ किए सज्दे कहाँ क़याम किया
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इस दिल में तो ख़िज़ाँ की हवा तक नहीं लगी
इस फूल को तबाह किया है बहार ने
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दम घुटा जाता है मोहब्बत का
बंद ही बंद गुफ़्तुगू है अभी
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तुझे पा के तुझ से जुदा हो गए हम
कहाँ खो दिया तू ने क्या हो गए हम
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दिया है दर्द तो रंग-ए-क़ुबूल दे ऐसा
जो अश्क आँख से टपके वो दास्ताँ हो जाए
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आँखों पर अपनी रख कर साहिल की आस्तीं को
हम दिल के डूबने पर आँसू बहा रहे हैं
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कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ़्र है
ला अपना हाथ दे मिरे दस्त-ए-सवाल में
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टकराऊँ क्यूँ ज़माने से क्या फ़ाएदा 'सिराज'
ख़ुद अपने रास्ते से हटा जा रहा हूँ मैं
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हर नफ़्स उतनी ही लौ देगा 'सिराज'
जितनी जिस दिल में हरारत होगी
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ख़ुदा-वंदा ये कैसी सुब्ह-ए-ग़म है
उजाले में बरसती है सियाही
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आह ये आँसू प्यारे प्यारे
लिख दे हिसाब-ए-ग़म में हमारे
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न मोहतसिब की ख़ुशामद न मय-कदे का तवाफ़
ख़ुदी में मस्त हूँ अपनी बहार में गुम हूँ
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सज्दा-ए-इश्क़ पे तन्क़ीद न कर ऐ वाइ'ज़
देख माथे पे अभी चाँद नुमायाँ होगा
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रात भर शम्अ' जलाता हूँ बुझाता हूँ 'सिराज'
बैठे बैठे यही शग़्ल-ए-शब-ए-तन्हाई है
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सोता रहा होंटों पे तबस्सुम का सवेरा
रह रह के जगाते रहे तक़दीर-ए-सहर हम
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वो भीड़ है कि ढूँढना तेरा तो दरकिनार
ख़ुद खोया जा रहा हूँ हुजूम-ए-ख़याल में
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ग़ुस्ल-ए-तौबा के लिए भी नहीं मिलती है शराब
अब हमें प्यास लगी है तो कोई जाम नहीं
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कम-ज़र्फ़ की निय्यत क्या पिघला हुआ लोहा है
भर भर के छलकते हैं अक्सर यही पैमाने
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न पी सको तो इधर आओ पोंछ दूँ आँसू
ये तुम ने सुन लिए इस दिल के सानेहात कहाँ
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हो गया आइना-ए-हाल भी गर्द-आलूदा
गोद में लाशा-ए-माज़ी को लिए बैठा हूँ
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बड़ों-बड़ों के क़दम डगमगाए जाते हैं
पड़ा है काम बदलते हुए ज़माने से
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जान सी शय की मुझे इश्क़ में कुछ क़द्र नहीं
ज़िंदगी जैसे कहीं मैं ने पड़ी पाई है
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जो अश्क सुर्ख़ है नामा-निगार है दिल का
सुकूत-ए-शब में लिखे जा रहे हैं अफ़्साने
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अभी रक्खा रहने दो ताक़ पर यूँही आफ़्ताब का आइना
कि अभी तो मेरी निगाह में वही मेरा माह-ए-तमाम है
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ज़र्ब-उल-मसल हैं अब मिरी मुश्किल-पसंदियाँ
सुलझा के हर गिरह को फिर उलझा रहा हूँ मैं
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कैसे फाँदेगा बाग़ की दीवार
तू गिरफ़्तार-ए-रंग-ओ-बू है अभी
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हर अश्क-ए-सुर्ख़ है दामान-ए-शब में आग का फूल
बग़ैर शम्अ के भी जल रहे हैं परवाने
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हैरान हैं अब जाएँ कहाँ ढूँडने तुम को
आईना-ए-इदराक में भी तुम नहीं रहते
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ज़रा देखो ये सरकश ज़र्रा-ए-ख़ाक
फ़लक का चाँद बनता जा रहा है
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चराग़ सज्दा जला के देखो है बुत-कदा दफ़्न ज़ेर-ए-काबा
हुदूद-ए-इस्लाम ही के अंदर ये सरहद-ए-काफ़िरी मिलेगी
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ख़बर रिहाई की मिल चुकी है चराग़ फूलों के जल रहे हैं
मगर बड़ी तेज़ रौशनी है क़फ़स का दर सूझता नहीं है
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चमक शायद अभी गीती के ज़र्रों की नहीं देखी
सितारे मुस्कुराते क्यूँ हैं ज़ेब-ए-आसमाँ हो कर
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ख़ुशा वो दौर कि जब मरकज़-ए-निगाह थे हम
पड़ा जो वक़्त तो अब कोई रू-शनास नहीं
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चंद तिनकों की सलीक़े से अगर तरतीब हो
बिजलियों को भी तवाफ़-ए-आशियाँ करना पड़े
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फिर भी पेशानी-ए-तूफ़ाँ पे शिकन बाक़ी है
डूबते वक़्त भी देखा न किनारा हम ने
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क़फ़स भी बिगड़ी हुई शक्ल है नशेमन की
ये घर जो फिर से सँवर जाए आशियाँ हो जाए
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ये एक लड़ी के सब छिटके हुए मोती हैं
का'बे ही की शाख़ें हैं बिखरे हुए बुत-ख़ाने
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आँसू हैं कफ़न-पोश सितारे हैं कफ़न-रंग
लो चाक किए देते हैं दामान-ए-सहर हम
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लहू में डूबी है तारीख़-ए-ख़िल्क़त-ए-इंसाँ
अभी ये नस्ल है शाइस्ता-ए-हयात कहाँ
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एक एक से भीक आँसुओं की माँग रहा हूँ
किस ने मुझे झोंका है जहन्नम की फ़ज़ा में
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