तनवीर अंजुम के शेर
शहरों के सारे जंगल गुंजान हो गए हैं
फिर लोग मेरे अंदर सुनसान हो गए हैं
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दूर तक ये रास्ते ख़ामोश हैं
दूर तक हम ख़ुद को सुनते जाएँगे
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दुखों के रूप बहुत और सुखों के ख़्वाब बहुत
तिरा करम है बहुत पर मिरे अज़ाब बहुत
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इस ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे मुझे नाज़ बहुत है
वो शख़्स मिरी जाँ का तलबगार हुआ है
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मुझे अज़ीज़ है बे-एहतियाती-ए-सादा
न शौक़ है न हुनर उस को आज़माने का
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टूटी है ये कश्ती तो मिरे साथ सफ़र को
वो जान-ए-मसाफ़त मिरा तय्यार हुआ है
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लम्हा-ए-इमकान को पहलू बदलते देखना
आतिश-ए-बे-रंग में ख़ुद को पिघलते देखना
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फ़रेब-ए-क़ुर्ब-ए-यार हो कि हसरत-ए-सुपुर्दगी
किसी सबब से दिल मुझे ये बे-क़रार चाहिए
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ग़म-ए-ज़माना जब न हो ग़म-ए-वजूद ढूँड लूँ
कि इक ज़मीन-ए-जाँ जो है वो दाग़दार चाहिए
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