तारिक़ नईम के शेर
ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
दिल-ए-ख़राब की ज़िद है कि घर बनाया जाए
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अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
शजर गिरा तो परिंदे तमाम शब रोए
अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए
क़दम ज़मीन पर रक्खा था जिस ने डरते हुए
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अभी फिर रहा हूँ मैं आप-अपनी तलाश में
अभी मुझ से मेरा मिज़ाज ही नहीं मिल रहा
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खोल देते हैं पलट आने पे दरवाज़ा-ए-दिल
आने वाले का इरादा नहीं देखा जाता
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उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया
ख़ुद आप ही तिरी आदत ख़राब की हम ने
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ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
कभी ज़िंदगी की किताब में तुझे देखते
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बे-वज्ह न बदले थे मुसव्विर ने इरादे
मैं उस के ख़यालात में पहले भी कहीं था
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रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह
तब कहीं हर्फ़ में तासीर नज़र आई है
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कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
ख़ुद ही अपने रस्ते की दीवार रहा हूँ
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जमाल मुझ पे ये इक दिन में तो नहीं आया
हज़ार आईने टूटे मिरे सँवरते हुए
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अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
बदल गए हैं मिरे दोस्तों के लहजे भी
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अजब नहीं दर-ओ-दीवार जैसे हो जाएँ
हम ऐसे लोग जो ख़ुद से कलाम करते हैं
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तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई
मिरे चराग़ तो लगता था रोए अब रोए
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किनारा कर न ऐ दुनिया मिरी हस्त-ए-ज़बूनी से
कोई दिन में मिरा रौशन सितारा होने वाला है
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ये वीरानी सी यूँही तो नहीं रहती है आँखों में
मिरे दिल ही से कोई जादा-ए-वहशत निकलता है
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वो आईना है तो हैरत किसी जमाल की हो
जो संग है तो कहीं रहगुज़र में रक्खा जाए
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ख़ुश-अर्ज़ानी हुई है इस क़दर बाज़ार-ए-हस्ती में
गिराँ जिस को समझता हूँ वो कम-क़ीमत निकलता है
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