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उस्मान मीनाई के शेर

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हो 'मीर' का ज़माना कि मौजूदा वक़्त हो

दिल्ली से लखनऊ की हमेशा ठनी रही

दिया बुझाने की फ़ितरत बदल भी सकती है

कोई चराग़ हवा पर दबाओ तो डाले

निशाँ क्यों ढूँढते हो उँगलियों के

क़ज़ा आई थी दस्ताने पहन कर

उस्ताद-ए-मोहतरम ने की इस्लाह शे'र की

लेकिन हलाक शे'र का मफ़्हूम कर दिया

किफ़ायत से तुम्हें हम सोचते हैं

रक़म यादों की अब तक चल रही है

कोई बशर कभी पानी बना नहीं सकता

ख़ुदा के होने का पहला सुबूत पानी है

तुम्हारे चेहरे की सारी नसें तनी हुई हैं

तुम्हारे हाथ में क्या आइना दिया गया है

क़ब्ज़ा किसी का पानी पे जारी रह सका

लेकिन हमारा प्यास पे क़ब्ज़ा अभी भी है

आओ पानी का फ़ातिहा पढ़ लें

उस की आँखों का मर गया पानी

ग़मों पर उस के कभी ए'तिबार मत करना

वो प्याज़ काट के आँसू निकाल लेता है

दीदार के सिक्के जो ज़रा भीख में माँगे

तो उस ने कहा जाओ जुमेरात को आना

पेड़ पर क्या सलाख़ निकलेगी

कल ज़मीनों में कील बोई थी

नेज़े की नोक तेरा तह-ए-दिल से शुक्रिया

अब तक गिरा नहीं है मिरा सर ज़मीन पर

ग़ज़लों के शे'र लिखने से पहले हज़ार बार

हम देखते हैं आप की तस्वीर की तरफ़

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