वक़ार मानवी के शेर
बहुत से ग़म छुपे होंगे हँसी में
ज़रा इन हँसने वालों को टटोलो
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हमारी ज़िंदगी कहने की हद तक ज़िंदगी है बस
ये शीराज़ा भी देखा जाए तो बरहम है बरसों से
ग़रीब को हवस-ए-ज़िंदगी नहीं होती
बस इतना है कि वो इज़्ज़त से मरना चाहता है
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सलीक़ा बोलने का हो तो बोलो
नहीं तो चुप भली है लब न खोलो
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हर ग़म सहना और ख़ुश रहना
मुश्किल है आसान नहीं है
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कहाँ मिलेगी भला इस सितमगरी की मिसाल
तरस भी खाता है मुझ पर तबाह कर के मुझे
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अब के 'वक़ार' ऐसे बिछड़े हैं
मिलने का इम्कान नहीं है
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इन आँसुओं से भला मेरा क्या भला होगा
वो मेरे बाद जो रोया भी याद कर के मुझे
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दिल में जो मर जाए वो है अरमाँ
जो निकले अरमान नहीं है
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ख़ुशी दामन-कशाँ है दिल असीर-ए-ग़म है बरसों से
हमारी ज़िंदगी का एक ही आलम है बरसों से
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मैं ज़िंदगी को लिए फिर रहा हूँ कब से 'वक़ार'
ये बोझ अब मिरे सर से उतरना चाहता है
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'वक़ार' ऐ काश मेरी उम्र में शामिल न की जाए
वो मुद्दत हाँ वही मुद्दत जो गुज़री उन की फ़ुर्क़त में
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