ज़ाहिदा ज़ैदी के शेर
मुड़ के देखा तो हमें छोड़ के जाती थी हयात
हम ने जाना था कोई बोझ गिरा है सर से
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ज़िंदगी तू ने तो सच है कि वफ़ा हम से न की
हम मगर ख़ुद तुझे ठुकराएँ ज़रूरी तो नहीं
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कभी इश्क़ साज़-ए-हयात था कभी सोज़-ए-दिल ने जला दिया
कभी वस्ल में भी कसक रही कभी दर्द-ओ-ग़म ने भी मज़ा दिया
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हमीं से अंजुमन-ए-इश्क़ मो'तबर ठहरी
हमीं को सौंपी गई ग़म की पासबानी भी
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ख़्वाब तो ख़्वाब हैं पल भर में बिखर जाते हैं
सच तो ये है कि बस इक काहिश-ए-जाँ रक़्स में है
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