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ज़हूर मिन्हास

ग़ज़ल 7

अशआर 19

कहीं कहीं से जो कपड़ों में भी नहीं ढलता

मैं उस बदन को भी शे'रों में ढाल लेता हूँ

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दु'आ है ये रक़ीब भी मिरी तरह ही ख़्वार हो

मैं चाहता हूँ आप की रक़ीब से बनी रहे

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भेजी तस्वीर भी तो आँखों की

या'नी आँखें दिखा रही हो मुझे

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रेल की पटरी पे भी लेटे हैं लोग

या'नी पटरी से उतर जाते हैं लोग

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वो थक गई थी भीड़ में चलते हुए 'ज़हूर'

उस के बदन पे अन-गिनत आँखों का बोझ था

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