ज़हूर मिन्हास के शेर
ख़ुदा का शुक्र कि छोटी सी है ख़ुदा की ज़मीं
ख़ुदा का शुक्र कि तुम भी इसी ज़मीन पे हो
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भेजी तस्वीर भी तो आँखों की
या'नी आँखें दिखा रही हो मुझे
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फ़िक्र-ए-तज्दीद-ए-हिज्र है वर्ना
कब मुझे वस्ल की ज़रूरत है
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इस क़दर क़हक़हे हैं दुनिया में
शर्म आती है मुझ को रोते हुए
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दु'आ है ये रक़ीब भी मिरी तरह ही ख़्वार हो
मैं चाहता हूँ आप की रक़ीब से बनी रहे
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मैं बदलता हूँ रोज़ अपना हदफ़
ये मिरी मुस्तक़िल-मिज़ाजी है
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रेल की पटरी पे भी लेटे हैं लोग
या'नी पटरी से उतर जाते हैं लोग
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तमाम शहर में बारिश की धाक बैठ गई
जो उड़ रही थी हवाओं में ख़ाक बैठ गई
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गाड़ी में भी घर को सोचे जाता हूँ
गाड़ी आगे और मैं पीछे जाता हूँ
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वो थक गई थी भीड़ में चलते हुए 'ज़हूर'
उस के बदन पे अन-गिनत आँखों का बोझ था
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जमालियात की शह-सुर्ख़ियाँ भी पढ़ लेना
किताब-ए-सीना-ए-दोशीज़गाँ भी पढ़ लेना
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दर्द का एहसास रक्खा है फ़क़त इंसान में
हैफ़ दीमक जी रही है 'मीर' के दीवान में
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हमा बयाज़ थे हर सम्त क़ुर्मुज़ी 'आरिज़
मैं कैसे सा’अद-ए-सीमीं पे दस्तख़त करता
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कहीं कहीं से जो कपड़ों में भी नहीं ढलता
मैं उस बदन को भी शे'रों में ढाल लेता हूँ
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उन के नक़्श-ए-क़दम पे चलना है
वो जो मंज़िल पे सर के बल पहुँचे
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जीना है गर तो ज़ख़्म लगा अपने आप को
बचने को आंधियों से तू खे़मे में छेद कर
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