ज़ुहूर नज़र के शेर
सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
हसरत है कि बस एक नज़र देख लें हम भी
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वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
मैं ने उस को आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
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पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो
चाहो तो हम फिर कुछ दूरी पर छोड़ आएँ तुम्हें
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वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
मैं ने उस को हम-सफ़र जाना कि तू उस की भी थी
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टैग : रक़ीब
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न सो सका हूँ न शब जाग कर गुज़ारी है
अजीब दिन हैं सुकूँ है न बे-क़रारी है
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लुट गया है सफ़र में जो कुछ था
पास अपने मकान तक भी नहीं
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अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
हम उन्हें आईना दिखा के रहे
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ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
मैं जो मिल जाता तो उस में आबरू उस की भी थी
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घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
मेरी रुस्वाई से शोहरत कू-ब-कू उस की भी थी
बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
तासीर-ए-दुआ का मुंतज़िर हूँ
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बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
वक़्त बे-तरह बीता उम्र बे-सबब गुज़री
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तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
चलते हैं फ़क़त चंद क़दम राह के ख़म भी
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