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नज़्म
पास रहो
मरहम-ए-मुश्क लिए, नश्तर-ए-अल्मास लिए
बैन करती हुई हँसती हुई, गाती निकले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मर्सिया
अल-हश्र जो मुर्दे न पुकारें तो ग़ज़ब है
अल-मौत ज़बान-ए-मलक-उल-मौत पे अब है
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
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नज़्म
कोई दिल की चाहत से मजबूर है
इश्क़ और मुश्क छुपते नहीं हैं कभी
इस हक़ीक़त से वाक़िफ़ हैं हम तुम सभी