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नज़्म
मुतरिबा
तेरी ख़मोशियाँ भी क्या रस-भरी हैं काइन
गर छेड़ दे ऐ जोगन मेरा भी तू दो-तारा
अमीर औरंगाबादी
ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है