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नज़्म
मुझ रिंद-ए-हुस्न-कार की मय-ख़्वारियाँ न पूछ
इस ख़्वाब-ए-जाँ-फ़रोज़ की बेदारियाँ न पूछ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
कहीं इक रिंद और वामाँदा-ए-अफ़्क़ार तन्हाई
कहीं महफ़िल की महफ़िल तौर से बे-तौर है साक़ी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जो मुझ ऐसे हैं रिंद उन को भी ज़ोम-ए-पारसाई है
और इस मज़मून की इक दावत-ए-इफ़्तार आई है
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
रिंद-ए-बे-कैफ़ को थी बादा-ओ-साग़र की तलाश
नाज़िर-ए-मंज़र-ए-फ़ितरत को थी मंज़र की तलाश
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
पार उतर जाएँगे बहर-ए-ग़म से रिंद-ए-बादा-नोश
ले उड़ेगी कश्ती-ए-मय को हवा बरसात की
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
साक़ी-ए-जाँ तिरे मय-ख़ाने का इक रिंद-ए-हक़ीर
मिस्ल-ए-बू तोड़ के हर क़ैद-ए-मक़ाम आया है
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
किस दौर में आए हैं हम ऐ मज्लिस-ए-साक़ी
जब रिंद-ए-ख़राबात-नशीं हो गए मदहोश