बसंत पर शेर
उर्दू शायरी में बसंत
कहीं-कहीं मुख्य पात्र के तौर पर सामने आता है । शायरों ने बसंत को उसके सौन्दर्यशास्त्र के साथ विभिन्न और विविध तरीक़ों से शायरी में पेश किया है ।उर्दू शायरी ने बसंत केंद्रित शायरी में सूफ़ीवाद से भी गहरा संवाद किया है ।इसलिए उर्दू शायरी में बहार को महबूब के हुस्न का रूपक भी कहा गया है । क्लासिकी शायरी के आशिक़ की नज़र से ये मौसम ऐसा है कि पतझड़ के बाद बसंत भी आ कर गुज़र गया लेकिन उसके विरह की अवधि पूरी नहीं हुई । इसी तरह जीवन के विरोधाभास और क्रांतिकारी शायरी में बसंत का एक दूसरा ही रूप नज़र आता है । यहाँ प्रस्तुत शायरी में आप बहार के इन्हीं रंगों को महसूस करेंगे ।
आते नज़र हैं दश्त-ओ-जबल ज़र्द हर तरफ़
है अब के साल ऐसी है ऐ दोस्ताँ बसंत
जब नबी-साहिब में कोह-ओ-दश्त से आई बसंत
कर के मुजरा शाह-ए-मर्दां की तरफ़ धाई बसंत
बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है
ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐश-ओ-तरब की अब कमी क्या है
बुलबुल हुआ है देख सदा रंग की बहार
इस साल 'आबरू' कूँ बन आई बसंत रुत
आया बसंत फूल भी शो'लों में ढल गए
मैं चूमने लगा तो मिरे होंट जल गए
ग़ुंचे नीं इस बहार में कडवाया अपना दिल
बुलबुल चमन में फूल के गाई बसंत रुत
जाम-ए-अक़ीक़ ज़र्द है नर्गिस के हाथ में
तक़्सीम कर रहा है मय-ए-अर्ग़वाँ बसंत
यारब हज़ार साल सलामत रहें हुज़ूर
हो रोज़ जश्न-ए-ईद यहाँ जावेदाँ बसंत
तस्वीर-ए-रू-ए-यार दिखाना बसंत का
अटखेलियों से दिल को लुभाना बसंत का
हम-रंग की है दून निकल अशरफ़ी के साथ
पाता है आ के रंग-ए-तलाई यहाँ बसंत
गर शाख़-ए-ज़ाफ़राँ उसे कहिए तो है रवा
है फ़रह-बख़्श वाक़ई इस हद कोहाँ बसंत
क़ुदरत की बरकतें हैं ख़ज़ाना बसंत का
क्या ख़ूब क्या अजीब ज़माना बसंत का
'इंशा' से शैख़ पूछता है क्या सलाह है
तर्ग़ीब-ए-बादा दी है मुझे ऐ जवाँ बसंत
हर सम्त सब्ज़ा-ज़ार बिछाना बसंत का
फूलों में रंग-ओ-बू को लुटाना बसंत का
कोयल नीं आ के कूक सुनाई बसंत रुत
बौराए ख़ास-ओ-आम कि आई बसंत रुत
पत्ते नहीं चमन में खड़कते तिरे बग़ैर
करती है इस लिबास में हर-दम फ़ुग़ाँ बसंत
पैग़ाम-ए-लुत्फ़-ए-ख़ास सुनाना बसंत का
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-आम बहाना बसंत का
टेसू के फूल दश्ना-ए-ख़ूनी हुए उसे
ब्रिहन के जी कूँ है ये कसाई बसंत रुत
करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत
आया है लाख रंग से ऐ बाग़बाँ बसंत
हर शाख़ ज़र्द ओ सुर्ख़ ओ सियह हिज्र-ए-यार में
डसते हैं दिल को आन के जूँ नाग ऐ बसंत
जोबन पर इन दिनों है बहार-ए-नशात-ए-बाग़
लेता है फूल भर के यहाँ झोलियाँ बसंत
रश्क-ए-जिनाँ चमन को बनाना बसंत का
हर हर कली में रंग दिखाना बसंत का
दिल को बहुत अज़ीज़ है आना बसंत का
'रहबर' की ज़िंदगी में समाना बसंत का
अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
सरसों के खेत में कोई पत्ता हरा न था
तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत
जिस से कि दिल की आग उठे जाग ऐ बसंत
'मुसहफ़ी' अब इक ग़ज़ल लिख तू ग़ज़ल की तरह से
ता करे आलम का ताराज-ए-शकेबाई बसंत