aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अन्याय पर शेर

हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़

गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही

साहिर लुधियानवी

ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा

ख़ामुशी भी तो हुई पुश्त-पनाही की तरह

परवीन शाकिर

कुछ कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न

ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है

मुज़फ़्फ़र वारसी

ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक

कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हज़ारों ज़ुल्म हों मज़लूम पर तो चुप रहे दुनिया

अगर मज़लूम कुछ बोले तो दहशत-गर्द कहती है

ज़मीर अतरौलवी

कुछ ज़ुल्म सितम सहने की आदत भी है हम को

कुछ ये है कि दरबार में सुनवाई भी कम है

ज़िया ज़मीर

जाने क्या क्या ज़ुल्म परिंदे देख के आते हैं

शाम ढले पेड़ों पर मर्सिया-ख़्वानी होती है

अफ़ज़ल ख़ान

ज़ुल्म पर ज़ुल्म गए ग़ालिब

आबले आबलों को छोड़ गए

मंज़र लखनवी

असीरान-ए-क़फ़स पर ज़ुल्म तो सय्याद करते हैं

कि उन के पर कतर लेते हैं तब आज़ाद करते हैं

मोहम्मद नाज़िर अली नाज़िर

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