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ईद के चाँद : न जाने कब से तेरा इन्तिज़ार था

ईद का चाँद इस लिए भी बहुत ख़ास होता है क्यों कि उसे देखने के अगले रोज़ ही ईद का दिन होता है । इस लिए उसे देखने के लिए हर कोई बेक़रार रहता है । उर्दू शायरी में ईद के चाँद को शाइरों ने बहुत एहमीयत दी है और इसे मुख़्तलिफ़ ढंग से बाँधा है । इस कलेक्शन को पढ़िए और लुत्फ़ लीजिए ।

पूछा जो उन से चाँद निकलता है किस तरह

ज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूँ

आरज़ू लखनवी

ईद का चाँद तुम ने देख लिया

चाँद की ईद हो गई होगी

इदरीस आज़ाद

वो चाँद कह के गया था कि आज निकलेगा

तो इंतिज़ार में बैठा हुआ हूँ शाम से मैं

फ़रहत एहसास

जिस तरफ़ तू है उधर होंगी सभी की नज़रें

ईद के चाँद का दीदार बहाना ही सही

अमजद इस्लाम अमजद

देखा हिलाल-ए-ईद तो आया तेरा ख़याल

वो आसमाँ का चाँद है तू मेरा चाँद है

अज्ञात

काश हमारी क़िस्मत में ऐसी भी कोई शाम जाए

इक चाँद फ़लक पर निकला हो इक चाँद सर-ए-बाम जाए

अनवर मिर्ज़ापुरी

मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब

देर से चाँद निकलना भी ग़लत लगता है

अहमद कमाल परवाज़ी

माह-ए-नौ देखने तुम छत पे जाना हरगिज़

शहर में ईद की तारीख़ बदल जाएगी

जलील निज़ामी

ईद के बा'द वो मिलने के लिए आए हैं

ईद का चाँद नज़र आने लगा ईद के बा'द

अज्ञात

लुत्फ़-ए-शब-ए-मह दिल उस दम मुझे हासिल हो

इक चाँद बग़ल में हो इक चाँद मुक़ाबिल हो

मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस

देखा हिलाल-ए-ईद तो तुम याद गए

इस महवियत में ईद हमारी गुज़र गई

अज्ञात

तू आए तो मुझ को भी

ईद का चाँद दिखाई दे

हरबंस सिंह तसव्वुर

मुद्दतों बा'द कभी नज़र आने वाले

ईद का चाँद देखा तिरी सूरत देखी

मंज़र लखनवी

शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं

चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में

गुलज़ार

छुप गया ईद का चाँद निकल कर देर हुई पर जाने क्यों

नज़रें अब तक टिकी हुई हैं मस्जिद के मीनारों पर

शायर जमाली

मेरी तो पोर पोर में ख़ुश्बू सी बस गई

उस पर तिरा ख़याल है और चाँद-रात है

वसी शाह

तू आएगा तो हो जाएँगी ख़ुशियाँ सब ख़ाक

ईद का चाँद भी ख़ाली का महीना होगा

मुज़्तर ख़ैराबादी

क्यूँ इशारा है उफ़ुक़ पर आज किस की दीद है

अलविदा'अ माह-ए-रमज़ाँ वो हिलाल-ए-ईद है

निसार कुबरा अज़ीमाबादी

निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद

और देखते हैं अबरू-ए-ख़मदार की तरफ़

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

चाँद निकला है ब-अंदाज़-ए-दिगर आज की शाम

बारिश-ए-नूर है ता-हद्द-ए-नज़र आज की शाम

अरमान अकबराबादी

उसी की शक्ल मुझे चाँद में नज़र आए

वो माह-रुख़ जो लब-ए-बाम भी नहीं आता

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

छेड़ा है एक नग़्मा-ए-शीरीं भी कू-ब-कू

दिल ने हिलाल-ए-ईद की ताईद के लिए

अफ़रोज़ रिज़वी
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