इन्दिरा वर्मा
ग़ज़ल 20
अशआर 21
कैसे सहरा में भटकता है मिरा तिश्ना-लब
कैसी बस्ती है जहाँ मिलता नहीं पानी तक
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बहारों के आँचल में ख़ुश-बू छुपी है
गुलों की क़बा में भरे हैं सभी रंग
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वक़्त ख़ामोश है टूटे हुए रिश्तों की तरह
वो भला कैसे मिरे दिल की ख़बर पाएगा
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शाख़-दर-शाख़ होती है ज़ख़्मी
जब परिंदा शिकार होता है
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सिला दिया है मोहब्बत का तुम ने ये कैसा
मसर्रतों में भी रोने लगी हैं अब आँखें
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