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राहत इंदौरी

1950 - 2020 | इंदौर, भारत

लोकप्रिय शायर और फ़िल्म गीतकार

लोकप्रिय शायर और फ़िल्म गीतकार

राहत इंदौरी के शेर

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बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए

मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए

चाँद सूरज मिरी चौखट पे कई सदियों से

रोज़ लिक्खे हुए चेहरे पे सवाल आते हैं

सोए रहते हैं ओढ़ कर ख़ुद को

अब ज़रूरत नहीं रज़ाई की

हम-सफ़र किसी हम-नशीं से निकलेगा

हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा

ख़याल था कि ये पथराव रोक दें चल कर

जो होश आया तो देखा लहू लहू हम थे

शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम

आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

ये हवाएँ उड़ जाएँ ले के काग़ज़ का बदन

दोस्तो मुझ पर कोई पत्थर ज़रा भारी रखो

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं

रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे

कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते

रात की धड़कन जब तक जारी रहती है

सोते नहीं हम ज़िम्मेदारी रहती है

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो

ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो

हम अपनी जान के दुश्मन को अपनी जान कहते हैं

मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं

मिरी ख़्वाहिश है कि आँगन में दीवार उठे

मिरे भाई मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले

सूरज सितारे चाँद मिरे साथ में रहे

जब तक तुम्हारे हाथ मिरे हाथ में रहे

हमारे मीर-तक़ी-'मीर' ने कहा था कभी

मियाँ ये आशिक़ी इज़्ज़त बिगाड़ देती है

मैं पर्बतों से लड़ता रहा और चंद लोग

गीली ज़मीन खोद के फ़रहाद हो गए

दिन ढल गया तो रात गुज़रने की आस में

सूरज नदी में डूब गया हम गिलास में

एक ही नद्दी के हैं ये दो किनारे दोस्तो

दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो

शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए

ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए

उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो

धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है

मैं कर दुश्मनों में बस गया हूँ

यहाँ हमदर्द हैं दो-चार मेरे

बोतलें खोल कर तो पी बरसों

आज दिल खोल कर भी पी जाए

दोस्ती जब किसी से की जाए

दुश्मनों की भी राय ली जाए

मैं ने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया

इक समुंदर कह रहा था मुझ को पानी चाहिए

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है

चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है

ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे

नींद रक्खो या रक्खो ख़्वाब मेयारी रखो

मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को

समझ रही थी कि ऐसे ही छोड़ दूँगा उसे

इक मुलाक़ात का जादू कि उतरता ही नहीं

तिरी ख़ुशबू मिरी चादर से नहीं जाती है

मैं आख़िर कौन सा मौसम तुम्हारे नाम कर देता

यहाँ हर एक मौसम को गुज़र जाने की जल्दी थी

मैं मर जाऊँ तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना

लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना

अब इतनी सारी शबों का हिसाब कौन रखे

बड़े सवाब कमाए गए जवानी में

जा-नमाज़ों की तरह नूर में उज्लाई सहर

रात भर जैसे फ़रिश्तों ने इबादत की है

तुझ से मिलने की तमन्ना भी बहुत है लेकिन

आने जाने में किराया भी बहुत लगता है

घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया

घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है

तेरी महफ़िल से जो निकला तो ये मंज़र देखा

मुझे लोगों ने बुलाया मुझे छू कर देखा

कॉलेज के सब बच्चे चुप हैं काग़ज़ की इक नाव लिए

चारों तरफ़ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है

शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया

कुछ यादों ने चुटकी में लोबान लिया

नए किरदार आते जा रहे हैं

मगर नाटक पुराना चल रहा है

अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है

उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते

वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा

मैं उस के ताज की क़ीमत लगा के लौट आया

मैं करवटों के नए ज़ाइक़े लिखूँ शब-भर

ये इश्क़ है तो कहाँ ज़िंदगी अज़ाब करूँ

चराग़ों का घराना चल रहा है

हवा से दोस्ताना चल रहा है

बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर

जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ

सितारो आओ मिरी राह में बिखर जाओ

ये मेरा हुक्म है हालाँकि कुछ नहीं हूँ मैं

आते जाते पल ये कहते हैं हमारे कान में

कूच का ऐलान होने को है तय्यारी रखो

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