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मुख़तार तलहरी

1960 | बरेली, भारत

मुख़तार तलहरी के शेर

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दिल दुखाना मिरा नहीं मक़्सद

हक़-बयानी मिरी नहीं जाती

इक तो वैसे ही उदासी की घटा छाई है

और छेड़ोगे तो आँसू भी निकल सकते हैं

आप मज़लूम के अश्कों से खिलवाड़ करें

ये वो दरिया हैं जो शहरों को निगल सकते हैं

रौशनी के लिए 'मुख़्तार' जलाए थे चराग़

क्या ख़बर थी कि मिरे हाथ भी जल सकते हैं

आज ऐसी वादियों से हो के आया हूँ जहाँ

पेड़ थे नज़दीक लेकिन दूर तक साया था

थका दिया है मुझे इस क़दर मसाफ़त ने

सफ़र के नाम से अब रूह काँप जाती है

जिस वक़्त हुआ करती है बेचैन तबीअत

उस वक़्त बयाबान से लगते हैं चमन भी

शिद्दत-ए-प्यास के एहसास को बढ़ने दीजे

एड़ियों से कभी चश्मे भी उबल सकते हैं

रहा काम उस की जुस्तुजू में

इधर मैं ख़ुद से भी गुम हो गया हूँ

मिरी हँसी को सर-ए-बज़्म सह लिया उस ने

फिर उस के बा'द अकेले में इंतिक़ाम लिया

हमारे ज़ह्न पे उस का असर तो अब भी है

बिछड़ने वाला शरीक-ए-सफ़र तो अब भी है

इरादे फिर भी मुस्तहकम बहुत हैं

मिरी राहों में पेच-ओ-ख़म बहुत हैं

मिटाना चाहूँ तो मुमकिन कहाँ मिटा भी सकूँ

वो एक बाल जो आईना-ए-ख़याल में है

हमारी सम्त से बे-रग़बती कर वर्ना

तिरे बग़ैर क़रार गया तो क्या होगा

उन से बातें करते करते दिल में टीस चमक उट्ठी थी

लफ़्ज़ों पर फूलों की रिदा थी मा'नी में नश्तर पिन्हाँ थे

वो आएँ हम से दलील माँगें

जो कह रहे हैं ख़ुदा नहीं है

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