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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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मुख़तार तलहरी

1960 | बरेली, भारत

मुख़तार तलहरी के शेर

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दिल दुखाना मिरा नहीं मक़्सद

हक़-बयानी मिरी नहीं जाती

मिरी हँसी को सर-ए-बज़्म सह लिया उस ने

फिर उस के बा'द अकेले में इंतिक़ाम लिया

थका दिया है मुझे इस क़दर मसाफ़त ने

सफ़र के नाम से अब रूह काँप जाती है

आज ऐसी वादियों से हो के आया हूँ जहाँ

पेड़ थे नज़दीक लेकिन दूर तक साया था

हमारे ज़ह्न पे उस का असर तो अब भी है

बिछड़ने वाला शरीक-ए-सफ़र तो अब भी है

रहा काम उस की जुस्तुजू में

इधर मैं ख़ुद से भी गुम हो गया हूँ

जिस वक़्त हुआ करती है बेचैन तबीअत

उस वक़्त बयाबान से लगते हैं चमन भी

मिटाना चाहूँ तो मुमकिन कहाँ मिटा भी सकूँ

वो एक बाल जो आईना-ए-ख़याल में है

उन से बातें करते करते दिल में टीस चमक उट्ठी थी

लफ़्ज़ों पर फूलों की रिदा थी मा'नी में नश्तर पिन्हाँ थे

हमारी सम्त से बे-रग़बती कर वर्ना

तिरे बग़ैर क़रार गया तो क्या होगा

इरादे फिर भी मुस्तहकम बहुत हैं

मिरी राहों में पेच-ओ-ख़म बहुत हैं

वो आएँ हम से दलील माँगें

जो कह रहे हैं ख़ुदा नहीं है

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