Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
Shakeb Jalali's Photo'

शकेब जलाली

1934 - 1966 | कराची, पाकिस्तान

प्रसिद्ध पाकिस्तानी शायर। कम उम्र में आत्म हत्या की

प्रसिद्ध पाकिस्तानी शायर। कम उम्र में आत्म हत्या की

शकेब जलाली के शेर

19.1K
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

बद-क़िस्मती को ये भी गवारा हो सका

हम जिस पे मर मिटे वो हमारा हो सका

कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद

आईना ग़ौर से तू ने कभी देखा ही नहीं

आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे

तितलियाँ मंडला रही हैं काँच के गुल-दान पर

तू ने कहा था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ

आँखों को अब ढाँप मुझे डूबते भी देख

लोग देते रहे क्या क्या दिलासे मुझ को

ज़ख़्म गहरा ही सही ज़ख़्म है भर जाएगा

सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह

देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में

रहता था सामने तिरा चेहरा खुला हुआ

पढ़ता था मैं किताब यही हर क्लास में

ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे

तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है

जाती है धूप उजले परों को समेट के

ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के

मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरूँ

जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे

पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें

फिर आइने में चूम लिया अपने-आप को

यूँ तो सारा चमन हमारा है

फूल जितने भी हैं पराए हैं

मल्बूस ख़ुश-नुमा हैं मगर जिस्म खोखले

छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर

क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा है

संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे

भीगी हुई इक शाम की दहलीज़ पे बैठे

हम दिल के सुलगने का सबब सोच रहे हैं

लोग दुश्मन हुए उसी के 'शकेब'

काम जिस मेहरबान से निकला

प्यार की जोत से घर घर है चराग़ाँ वर्ना

एक भी शम्अ रौशन हो हवा के डर से

वो अलविदा'अ का मंज़र वो भीगती पलकें

पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है

जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है

मिरी तरह से अकेला दिखाई देता है

उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ

ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी

जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया

तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत

इतनी तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो

शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है

के पत्थर तो मिरे सेहन में दो-चार गिरे

जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे

'शकेब' अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है

हम उस से बच के चलते हैं जो रस्ता आम हो जाए

आलम में जिस की धूम थी उस शाहकार पर

दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख

फ़सील-ए-जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं

हुदूद-ए-वक़्त से आगे निकल गया है कोई

वक़्त ने ये कहा है रुक रुक कर

आज के दोस्त कल के बेगाने

कितने ही ज़ख़्म हैं मिरे इक ज़ख़्म में छुपे

कितने ही तीर आने लगे इक निशान पर

गले मिला कभी चाँद बख़्त ऐसा था

हरा-भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था

अभी अरमान कुछ बाक़ी हैं दिल में

मुझे फिर आज़माया जा रहा है

कोई इस दिल का हाल क्या जाने

एक ख़्वाहिश हज़ार तह-ख़ाने

हम-सफ़र रह गए बहुत पीछे

आओ कुछ देर को ठहर जाएँ

एक अपना दिया जलाने को

तुम ने लाखों दिए बुझाए हैं

साहिल तमाम अश्क-ए-नदामत से अट गया

दरिया से कोई शख़्स तो प्यासा पलट गया

वहाँ की रौशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत

मैं उस गली में अकेला था और साए बहुत

दिल सा अनमोल रतन कौन ख़रीदेगा 'शकेब'

जब बिकेगा तो ये बे-दाम ही बिक जाएगा

दर्द के मौसम का क्या होगा असर अंजान पर

दोस्तो पानी कभी रुकता नहीं ढलवान पर

बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे

मुसाफ़िरों को ग़नीमत है ये सराए बहुत

इस शोर-ए-तलातुम में कोई किस को पुकारे

कानों में यहाँ अपनी सदा तक नहीं आती

कहता है आफ़्ताब ज़रा देखना कि हम

डूबे थे गहरी रात में काले हुए नहीं

वक़्त की डोर ख़ुदा जाने कहाँ से टूटे

किस घड़ी सर पे ये लटकी हुई तलवार गिरे

मुझ से मिलने शब-ए-ग़म और तो कौन आएगा

मेरा साया है जो दीवार पे जम जाएगा

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए