आज़िम कोहली के शेर
मोहब्बत करने वाले दर्द में तन्हा नहीं होते
जो रूठोगे कभी मुझ से तो अपना दिल दुखाओगे
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ज़िंदगी सुंदर ग़ज़ल है दोस्तो
ज़िंदगी को गुनगुनाना चाहिए
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मैं जी भर के रोया तो आराम आया
मिरा ग़म ही आख़िर मिरे काम आया
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दुख पे मेरे रो रहा था जो बहुत
जाते जाते कह गया अच्छा हुआ
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देखना कैसे पिघलते जाओगे
जब मिरी आग़ोश में तुम आओगे
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हम ने मिल-जुल के गुज़ारे थे जो दिन अच्छे थे
लम्हे वो फिर से जो आते तो बहुत अच्छा था
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नीला अम्बर चाँद सितारे बच्चों की जागीरें हैं
अपनी दुनिया में तो बस दीवारें ही ज़ंजीरें हैं
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देखा न तुझे ऐ रब हम ने हाँ दुनिया तेरी देखी है
सड़कों पर भूके बच्चे भी कोठे पर अब्ला नारी भी
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सब्र की तकरार थी जोश ओ जुनून-ए-इश्क़ से
ज़िंदगी भर दिल मुझे मैं दिल को समझाता रहा
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जो हुआ जैसा हुआ अच्छा हुआ
जब जहाँ जो हो गया अच्छा हुआ
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'आज़िम' तेरी बर्बादी में सब ने मिल-जुल कर काम किया
कुछ खेल लकीरों का भी है कुछ वक़्त की कार-गुज़ारी भी
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आदमी को चाहिए तौफ़ीक़ चलने की फ़क़त
कुछ नहीं तो गुज़रे वक़्तों का धुआँ ले कर चले
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बात चल निकलेगी फिर इक़रार की इंकार की
फिर वही बचपन के भूले गीत गाए जाएँगे
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रंग आ जाता था उन की दीद से रुख़ पर मिरे
देख कर अब वो भी मुझ को सुर्ख़-रू होने लगे
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कौन बाँधेगा मिरी बिखरी हुई उम्मीद को
खुल रहा है अब तो हर हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का
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मुझे अय्यारियाँ सब आ गई हैं
मैं अब तेरे नगर का हो गया हूँ
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वो जाते जाते मुझे अपने ग़म भी सौंप गया
अजीब ढंग निकाला है ग़म-गुसारी का
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ये क्या हुआ कि अब तुझी से बद-गुमाँ मैं हो गया
मैं सोचता था ज़िंदगी तू मुझ को रास आ गई
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मिरे हर ज़ख़्म पर इक दास्ताँ थी उस के ज़ुल्मों की
मिरे ख़ूँ-बार दिल पर उस के हाथों का निशाँ भी था
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कौन जाने किस घड़ी याँ क्या से क्या हो कर रहे
ख़ौफ़ सा इक दरमियाँ होता है तेरे शहर में
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