अब्दुल वहाब सुख़न के शेर
नए हैं वस्ल के मौसम मोहब्बतें भी नई
नए रक़ीब हैं अब के अदावतें भी नई
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किताब-ए-दिल का मिरी एक बाब हो तुम भी
तुम्हें भी पढ़ता हूँ मैं इक निसाब की सूरत
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ये सानेहा भी हो गया है रस्ते में
जो रहनुमा था वही खो गया है रस्ते में
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ये प्यार का जज़्बा तिरे कुछ काम तो आए
मेरा नहीं बनता है तो बन और किसी का
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वो ऐसे मोड़ पर मुझ को मिला था
मैं तन्हाई का आदी हो चुका था
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जला दिए हैं किसी ने पुराने ख़त वर्ना
फ़ज़ा में ऐसा तो रक़्स-ए-शरर नहीं होता
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मोहब्बतों के हसीं बाब से ज़रा आगे
किताब-ए-ज़ीस्त में मिलता है गुमरही का वरक़
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जल रहे हैं अभी कमज़ोर अक़ीदों के चराग़
जिस का जी चाहे ज़माने में ख़ुदा हो जाए
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शायद कि ये ज़माना उन्हें पूजने लगे
कुछ लोग इस ख़याल से पत्थर के हो गए
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जब भी ये सोचने लगता हूँ कि कौन अपना है
ज़ेहन में आ के कई नाम निकल जाते हैं
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ये जो मैं तुझ को हम-आग़ोश किए रहता हूँ
जाने किस किस को फ़रामोश किए रहता हूँ
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फँस ही जाते हैं किसी दाम में आख़िर हम लोग
लाख कहते हैं छलावे में नहीं आएँगे
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वो ऐसे मोड़ पर मुझ को मिला था
मैं तन्हाई का आदी हो चुका था
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शायद कि ये ज़माना उन्हें पूजने लगे
कुछ लोग इस ख़याल से पत्थर के हो गए
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तुम्हारी बात ही क्या तुम बड़े हुनर से मिले
न ज़ख़्म-ए-दिल की तरह और न चारागर की तरह
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थाम रक्खी है हम ने चाल अपनी
आज-कल हैं सितारे गर्दिश में
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जल रहे हैं अभी कमज़ोर अक़ीदों के चराग़
जिस का जी चाहे ज़माने में ख़ुदा हो जाए
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तुम्हारी बात ही क्या तुम बड़े हुनर से मिले
न ज़ख़्म-ए-दिल की तरह और न चारागर की तरह
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ये जो मैं तुझ को हम-आग़ोश किए रहता हूँ
जाने किस किस को फ़रामोश किए रहता हूँ
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