अब्दुर्राहमान वासिफ़ के शेर
कोई चराग़ मिरी सम्त भी रवाना करो
बहुत दिनों से अँधेरा मिरे वजूद में है
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इक इंतिज़ार में क़ाएम है इस चराग़ की लौ
इक एहतिमाम में कमरे का दर खुला हुआ है
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मिरा तुम्हारा तअल्लुक़ बिगड़ के बन गया है
मिरे तुम्हारे ख़यालात का अमीं कोई है
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पहले मेरी ज़ात में था मौजूद कोई
अब है मेरी ज़ात का हिस्सा सन्नाटा
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थामूँगा नहीं अब के मुनाजात का दामन
दिल तुझ से उठा और तिरे दर से उठा मैं
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सो यूँ हुआ कि लगा क़ुफ़्ल नुत्क़-ओ-लब पे मिरे
मैं तुम से मिल के बहुत देर तक रहा ख़ामोश
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ये तेरा माल किसी रोज़ डस ही लेगा तुझे
अगर तू इस में से ख़ैरात कुछ नहीं करेगा
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मुझे अब आ गए हैं नफ़रतों के बीज बोने
सो मेरा हक़ ये बनता है कि सरदारी करूँगा
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अभी से मत मिरे किरदार को मरा हुआ जान
तिरे फ़साने में ज़िक्र आएगा दोबारा मिरा
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साथ देने की बात सारे करें
और निभाए कोई कोई मिरे दोस्त
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