आबिद वदूद के शेर
तिरे हाथों में है तिरी क़िस्मत
तिरी इज़्ज़त तिरे ही काम से है
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मैं बारिशों में बहुत भीगता रहा 'आबिद'
सुलगती धूप में इक छत बहुत ज़रूरी है
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टैग : धूप
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अब क़फ़स और गुलिस्ताँ में कोई फ़र्क़ नहीं
हम को ख़ुशबू की तलब है ये सबा जानती है
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इस ए'तिबार पे काटी है हम ने उम्र-ए-अज़ीज़
सहर का वक़्त उजाले भी साथ लाएगा
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सब अपने अपने तरीक़े से भीक माँगते हैं
कोई ब-नाम-ए-मोहब्बत कोई ब-जामा-ए-इश्क़
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कोई मंज़र भी नहीं अच्छा लगा
अब के आँखों में है वीरानी बहुत
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यज़ीद-ए-वक़्त ने अब के लगाई है क़दग़न
कि भूल कर भी न गाए कोई तराना-ए-इश्क़
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सर पर गिरे मकान का मलबा ही रख लिया
दुनिया के क़ीमती सर-ओ-सामान से गए
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हम किसी सुल्ताँ के ताबे नहीं 'आबिद-वदूद'
हम वो कहते हैं जो अपने दिल पे है गुज़री हुई
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शहर ये सायों का है इस में बनी-आदम कहाँ
अब किसी सूरत यहाँ इंसान होना चाहिए
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मगर ये तीरगी जाने का नाम लेती नहीं
मैं नूर बाँटता सोज़-ए-निहाँ की ज़द में हूँ
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