अफ़रोज़ आलम के शेर
ये खुला जिस्म खुले बाल ये हल्के मल्बूस
तुम नई सुब्ह का आग़ाज़ करोगे शायद
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तुम्हारी गुफ़्तुगू से आस की ख़ुश्बू छलकती है
जहाँ तुम हो वहाँ पे ज़िंदगी मालूम होती है
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मैं ज़ेहनी तौर पे आवारा होता जाता हूँ
मिरे शुऊ'र मुझे अपनी हद के अंदर खींच
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ज़माना तुझ को हरीफ़ कह ले उसे ये हक़ है
मिरी नज़र में तू देवता है यही बहुत है
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तारीख़ बताएगी वो क़तरा है कि दरिया
आँसू है अभी वक़्त के क़दमों में पड़ा है
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सताती है तुम्हारी याद जब मुझ को शब-ए-हिज्राँ
मुझे ख़ुद अपनी हस्ती अजनबी मालूम होती है
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गुम-सुम सा खड़ा है कोई दरवाज़ा-ए-दिल पर
इस शाम का मंज़र तो दिल-आवेज़ बहुत है
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अभी सितारों में बाक़ी है ज़िंदगी की रमक़
कुछ और देर ज़रा नर्म गर्म चादर खींच
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हर ख़्वाब शिकस्ता है तामीर-ए-नशेमन का
हर सुब्ह के माथे पर बाज़ार की गर्मी है
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इसी लिए तो ये दुनिया धुली धुली सी लगे
तिरे फ़िराक़ में रोए हैं ज़ार-ज़ार अभी
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मैं उजाले को मोहब्बत का ख़ुदा लिखता हूँ
वो अँधेरे ही से मानूस हुआ जाता है
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अदा-ए-ख़ार से गुलशन की बढ़ गई ज़ीनत
अगरचे फूलों के दामन हैं तार तार अभी
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