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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अफ़ज़ल अली अफ़ज़ल

1998 | जयपुर, भारत

अफ़ज़ल अली अफ़ज़ल के शेर

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ख़ामोश आँखें उदास चेहरा ये बिखरी ज़ुल्फ़ें बुझा बुझा मन

कि ज़ीस्त जैसे हुई है बेवा उतार डाले तमाम गहने

रातों की नींद एक परी-ज़ाद ले उड़ी

दिन का सुकून फ़िक्र-ए-मईशत में खो गया

समझ आता है हम को दुख बड़ों का

हम अपने घर के बच्चों में बड़े हैं

ऐसी हैं क़ुर्बतें कि मुझी में बसा है वो

ऐसे हैं फ़ासले कि नहीं राब्ता नसीब

चूमा था एक दिन किसी गुल की जबीन को

लहजे से आज तक मिरे ख़ुशबू नहीं गई

कुछ तो करें कि दिल ये कहीं और जा लगे

कुछ देर के लिए सही आँखों को चैन हो

यूँ तो वो इत्र-दान था लेकिन ये क्या हुआ

टूटा तो एक सम्त भी ख़ुशबू नहीं गई

ये तिरी मर्ज़ी है अब चाक घुमा या घुमा

ख़ुद को मिट्टी की तरह सौंप दिया है मैं ने

बे-ख़बर रोड पे इन भागते बच्चों को मैं

कितनी हसरत से थकन ओढ़े हुए देखता हूँ

कल रात मैं बहुत ही अलग सा लगा मुझे

उस की नज़र ने यूँ मिरी सूरत खंगाली दोस्त

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