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अफ़ज़ल मिनहास के शेर

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दिल की मस्जिद में कभी पढ़ ले तहज्जुद की नमाज़

फिर सहर के वक़्त होंटों पर दुआ भी आएगी

अपनी बुलंदियों से गिरूँ भी तो किस तरह

फैली हुई फ़ज़ाओं में बिखरा हुआ हूँ मैं

उजली उजली ख़्वाहिशों पर नींद की चादर डाल

याद के रौज़न से कुछ ताज़ा हवा भी आएगी

चाँद में कैसे नज़र आए तिरी सूरत मुझे

आँधियों से आसमाँ का रंग मैला हो गया

जिन पत्थरों को हम ने अता की थीं धड़कनें

उन को ज़बाँ मिली तो हमीं पर बरस पड़े

दर्द ज़ंजीर की सूरत है दिलों में मौजूद

इस से पहले तो कभी इस के ये पैराए थे

वो दौर अब कहाँ कि तुम्हारी हो जुस्तुजू

इस दौर में तो हम को ख़ुद अपनी तलाश है

ये भी शायद ज़िंदगी की इक अदा है दोस्तो

जिस को साथी मिल गया वो और तन्हा हो गया

क्या फ़ैसला दिया है अदालत ने छोड़िए

मुजरिम तो अपने जुर्म का इक़बाल कर गया

इंसान बे-हिसी से है पत्थर बना हुआ

मुँह में ज़बान भी है लहू भी रगों में है

हवा के फूल महकने लगे मुझे पा कर

मैं पहली बार हँसा ज़ख़्म को छुपाए हुए

तुझ को सुकूँ नहीं है तो मिट्टी में डूब जा

आबाद इक जहान ज़मीं की तहों में है

ज़िंदगी की ज़ुल्मतें अपने लहू में रच गईं

तब कहीं जा कर हमें आँखों की बीनाई मिली

एक ही फ़नकार के शहकार हैं दुनिया के लोग

कोई बरतर किस लिए है कोई कम-तर किस लिए

लोग मेरी मौत के ख़्वाहाँ हैं 'अफ़ज़ल' किस लिए

चंद ग़ज़लों के सिवा कुछ भी नहीं सामान में

बिखरे हुए हैं दिल में मिरी ख़्वाहिशों के रंग

अब मैं भी इक सजा हुआ बाज़ार हो गया

ज़िंदगी इतनी परेशाँ है ये सोचा भी था

उस के अतराफ़ में शोलों का समुंदर देखा

रस्ते में कोई पेड़ जो मिल जाए तो बैठूँ

वो बार उठाया है कि दिखने लगे शाने

सत्ह-ए-दरिया पर उभरने की तमन्ना ही नहीं

अर्श पर पहुँचे हुए हैं जब से गहराई मिली

जाने ये हिद्दत चमन को रास आए या नहीं

आग जैसी कैफ़ियत है ख़ुशबुओं की लहर में

अपने माहौल से कुछ यूँ भी तो घबराए थे

संग लिपटे हुए फूलों में नज़र आए थे

बिखरते जिस्म ले कर तुंद तूफ़ानों में बैठे हैं

कोई ज़र्रे की सूरत है कोई टीले की सूरत है

गिर पड़ा तू आख़िरी ज़ीने को छू कर किस लिए

गया फिर आसमानों से ज़मीं पर किस लिए

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